Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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व्युत्सर्ग तप
उसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे
माय मज्जवभावेण लोहं संतोसओ जिणे ।' क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता-विनय से, माया को ऋजुता-सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीतना। इन चार धर्मों की साधना के द्वारा चार कपायों को क्षीण करते रहना कपाय व्युत्सर्ग की साधना है। इसका विस्तृत वर्णन कपाय प्रति संलीनता तप में किया गया है ।
२ संसार व्युत्सर्ग-संसार का अर्थ हैं नाक, तियंच, मनुष्य एवं देव रूप चार गतियां । स्थानांग सूत्र में संसार चार प्रकार का बताया है
चउयिहे संसारे पणते तं जहा
दव्यसंसारे, सेत्तसंसारे, फालसंसारे, भावसंसारे। द्रव्य संसार-चार गति कम। क्षेत्र संसार-लोकाकाश रूप । अधः,अध्यं एवं मध्यलोक रूप । फाल संसार-एक समय से लेकर पुद्गल परावतं तक काल रूप। भाव संसार-संसार परिभ्रमण के हेतु रूप क.पाय, प्रमाद आदि ।
यहां संसार से नार गति रूप द्रव्य संगार हो समझना चाहिए। गोंकि क्षेम व काल संसार का युसर्ग होता नहीं और वह साधक के लिए आवश्यक भी नहीं। भाव संगार वास्तव में मंसार है। संसार परिभ्रमण का मूल हेतु पही है. इसे हो वास्तविक संसार कह सकते हैं। कहा है-~
जे गुणं से आवटे । जो गुण है, इन्द्रियों के विषय है वे हो वास्तव में आवतं-मसार है, क्योंकि उन्ही में आपका हुआ आमा गुगार में परिजमण करना है। गुनाin (इन्दिर विश्व मुक्त) आत्मा भी मंगार में काम नहीं करना । श्रा, तो इस मार मारदरित्याग दिलाना, पाप-प्रति
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२ स्थानांग
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