Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
१२२
. जैन धर्म में तप ... होता। विनय-वन्दना आदि से नीच गोत्र कर्म का क्षय होता है ।२. इत्यादि आठ कमों को नष्ट करने के अनेक-उपाय शास्त्र में बताये हैं उन उपायों . को आचरण में लाते रहने से कम व्युत्सर्ग की साधना होती है। . ...
उपसंहार इस प्रकार द्रव्य एवं भाव व्युत्सर्ग के स्वरूपों पर यह विचार किया गया . है । साधक पहले द्रव्य व्युत्सर्ग की साधना करता है, आहार, वस्य-पात्र आदि से ममत्व घटाता है, उनका उपयोग कम करता है, फिर शरीर पर का ममत्व बंधन ढीला करता है। ध्यान समाधि आदि में लीन होकर-~~ वोसटकाए काया को वोसराने का अभ्यास करता है। अप्पाणं वोसिरामिजो पाठ बोला जाता है, वह सिर्फ शब्दों तक नहीं रहता, किन्तु उसकी भावना हृदय के कण-कण में रम जाती है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश यह अनुभव. संवेदन करने लगता है.---कि मैं इस देह से भिन्न चिदात्म स्वरूप हूं। शरीर का नाश होने पर भी मेरी आत्मा का नाश नहीं हो सकता। शरीर तो मरणधर्मा है, विनाशशील है ही--इस पर ममत्व करना - बंधन का कारण है, दुख का कारण है और शरीर को धर्म साधना के लिए उत्सर्ग कर देनामुक्ति का मार्ग है। दारीर को ममता, प्राणों का मोह जब मिट जाता है तो साधक देहातीत दशा में विचरण करने लगता है। फिर भय, उपसर्ग, कष्ट उसको जरा भी विचलित नहीं कर सकते। सुकौशल अणगार का उदाहरण. हमारे प्राचीन ग्रन्थों में आता है, विकराल मिहिनी को सामने आते देशकर निष्काम भाव से वहीं स्थिर हो गए। शरीर को बोसरा कर आत्मा के भौतर रमण करने लग गये। विकराल भात्री ने परीर के टुकड़े टुकी कर गोंग लिए पर वे अपने कायोत्सर्ग से हिले भी नहीं। माही एक राती(रोगराजि) नो नचात नहीं हुई। कापोरसगं में स्थित गुमाल, मेवा, कन्धा आर्य संकली उशाहरण हमारे मानते हैं जिन्होंने समान में ही
१ उत्तनम्मान २६