Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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. जैन धर्म में तप परिग्रह है-~-उनकी ममता । ममता छूट गई तो फिर यह शरीर तो उपकारी हो जायेगा । तो इसलिए शरीर की ममता, मोह, सार संभाल-इतका त्याग करना-अर्थात् ममता कम करते जाना—यही कायोत्सर्ग का अर्थ है । देह का नहीं, किन्तु देह-बुद्धि का विसर्जन करना-कायोत्सर्ग का उद्देश्य है। इसमें साधक कुछ समय के लिए शरीर को स्थिर कर, जिनमुद्रा धारण करके . खड़ा हो जाता है, मन में संकल्प करता है-अप्पाणं वोसिरामि में कुछ समय के लिए अपने शरीर का त्याग कर रहा हूं, अर्थात दंश, मंस आदि कार्ट, खाज खुजली आये, सर्दी लगे, गर्मी लगे-शरीर को कुछ भी कष्ट हो, पर मैं उस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दूंगा- यह सोचूंगा अभी मैं शरीर से . दूर हूं, आत्मा में विचरण कर रहा हूँ। और यही भावन करूंगा- ....
शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति .
विभिन्नमात्मानमपास्त दोपं । जिनेन्द्र ! कोपादिय खङ्गाष्टि
तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ! हे प्रभो ! आप की कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी शक्ति प्रकट हो ! ऐसा आध्यात्मिक वल जागृत हो कि मैं अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न दोप. रहित निर्मल आत्मा को शरीर से सवंया अलग समश सपू. ते म्यान से तलवार अलग रहती है।
शारीर म्यान है, आत्मा तलवार है-कायोत्सर्ग में इन दोनों को अलगअलग समाने की भावना जागृत होती है, इन दोनों का निमत्व भी अनुमा होता है। शरीर पर चाहे जितनी वेदना का प्रभाव हो, उपसर्ग हो, कोई प्रहार करे किन्तु उस समय साधक शरीर की पीड़ा में अति पोहा की. अनुभूति से जो सर्वधा दूर चला जाता है, उसी पारीर के गुरद कोई सम्बन्ध भी नहीं रहता, परा, वह तो अपने आत्मध्यान में स्पिर बड़ा रहता - है। और देह में होते हुए भी देह बुद्धि से, देह भाय से सर्वथा मुE-Trai
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