Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परस्परं भावयन्तः भ यः परमवाप्स्यम !
निःस्वार्थ वृत्ति से परस्पर में एक दूसरे का सहयोग करते हुए एक दूसरे की उन्नति में हाथ बंटाते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। बालय में दिया जाय तो मनुष्य को पशुता से हटाकर मानवता में प्रतिष्ठित करने वाला यही आदर्श है। वह एक-दूसरे की जीवन-उन्नति में सहायक बने । द समूची मानवजाति को एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना का उपदेश देते हुए कहा है-- त्वमस्माकं तव स्मति - तुम हमारे हो, हम तुम्हारे है । हम एक-दूसरे के लिए तैयार है, एक दूसरे के सुख-दुख में सहयोगी है । पावृत्य का महत्व और ताम
जैन धर्म में इस परस्परोपग्रह की भावना पर बहुत ही बल दिया गया. है। यहां से वैयावृत्य, सेवा, शुश्रूषा, पर्युपासना, साधर्मिक बाल आदि अनेक नामों से अनेक रूपों में बताया गया है और जीवन के साथ इ घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ा गया है। वैयावृत्य का अर्थ बताते हुए कहा है-वैयावृत्यं - नक्तादिभिः धर्मोपग्रहकारित्व वस्तुभिरुपग्रह-करणे- धर्म साधना में सहयोग करने वाली आहार आदि वस्तुओं के द्वारा सहयोग करनासहायता करना- इस अर्थ में वैयावृत्यब्द आता है। इसका भाव है एक दूसरे के जीवन में धर्म से साधना में विकास में, तथा जीवन-विरा में योग करना वै-सेवा है।
बताया गया है कि जानव-संसार में दी पद कार
जैन धर्म में त
हे भगवतीवा २४
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भवि वेगव
ऐन की दृष्टि
एवं ऐल की दृष्टि से
तोर्यकर का
विकास
एवं ऐसे
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पालिक
सम्यय छत्वग्य का सम्राट होता है, उसके काना एवं में कोइ नहीं करता और बेसन की दृष्टि से किसके है। वे होते है भामा की सतवतिकेाजवत