Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ध्यान तप
४८७ से सर्वथा शून्य हो जाता है, और किसी भी प्रकार के आलम्बन के विना स्थिर व विकल्प रहित हो जाता है। उक्त दोनों भेदों को समझने के लिए यहां चार प्रकार के ध्यान का स्वल्प समझना जरूरी है। ये सव धर्मध्यान के अन्तर्गत ही है । वास्तव में ये ध्यान के आलम्बन भूत - ध्येय हैं।
पिण्डस्थध्यान व धारणाएं १ पिण्डस्थ ध्यान-'पिण्ड' का अर्थ है शरीर । शांत, एकांत, स्वच्छ स्थान में वीरासन, सुखासन, सिद्धासन आदि किसी योग्य आसन पर स्थिर बैठकर शरीर (पिण्ड) में स्थित आत्म देवता का ध्यान करना पिण्डस्य ध्यान है। इसमें शुद्ध निर्मल भात्मा को लक्ष्य करके चिंतन किया जाता है । इस ध्यान में जो मुद्रा बनाई जाती है उसे 'ध्यान मुद्रा' कहा है । ध्यान मुद्रा का अर्थ है चित्त अन्तर्मुखी हो, आँखें नीचे झुकी हों तथा नासाग्न पर स्थिर हों शरीर सीधा सुखासन पर स्थित हो ।'
अन्तश्चतो बहिश्चक्षुरधःस्थाप्य सुखासनम् ।
समत्वं च शरीरस्य ध्यानमुद्रेति फथ्यते । तो इस प्रकार 'ध्यान मुद्रा' लगाकर शरीरस्थ आत्मा के स्वरूप का चिंतन करना पिण्डस्य ध्यान है । आत्मा की कल्पना इस प्रकार करनी चाहिए कि मेरा यह आत्मा सर्वज्ञ भगवान की आत्मा के तुल्य,पूर्णचन्द्र वत् निर्मल है, कांतिमान् है । शरीर के अन्दर पुरुष आकृतिवाला होकर स्फटिक सिंहासन पर विराजमान है। इस प्रकार कल्पना की आँखों से आत्मा का स्वरूप दर्शन करना चाहिए। पिण्डस्य ध्यान की पांच धारणाएं बताई गई हैं। जैसे१ पार्थिवी, २ आग्नेयी, ३ वायवी, ४ वारुणी, ५ तत्त्वरूपवती।
१ पापियी-धारणा-धारणा का अर्थ है-यांधना ! ध्येय में चित्त को स्थिर करना धारणा है-धारणा तु पयधिद् ध्येये चित्तस्य त्पिरबंधनन् ।'
१ योगमाप 10 २ गोरक्षारातफ ५ ३ योगशाल्म ७४ ४ अभिधानचिन्तामणि (आचार्य हेमचन्द्र) ११८४