Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
४६१
ध्यान तप
. ४६१ यत्पदानि पवित्राणि समालम्व्य विधीयते ।
तत्पदस्य समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगः ।। किन्हीं पवित्र पदों का आलम्वन लेकर उनके आधार पर चित्त को स्थिर कर देना-इसे पदस्थ ध्यान कहा गया है।
इस ध्यान में अपने इष्टपदों का जैसे भगवद्नाम, नवकार महामंत्र, तथा अन्य शास्त्रीय वाक्यों का, स्मरण करते हुए साधक उनमें तदाकार होने का प्रयत्न करता है । इष्ट का स्मरण करते-करते साधक उन मंत्र-पदों के अक्षरों को अपनी कल्पना से लिखता है,फिर उन्हीं अक्षरों को मनसे देखने का प्रयत्न करता है, मन उन मंत्राक्षरों में एकात्मकता की अनुभूति करने लगता है । ध्यान के अभ्यासी आचार्यों का मत है कि साधक जव ध्येय में लीन होने लगता है, अर्थात् स्वयं भगवद्स्वरूप की अनुभूति करने लगता है तो वह वास्तव में ही भगवद्स्वरूप बनने की ओर कदम बढाता है और उसमें क्रमिक सफलता भी मिलती जाती है ।
यद्ध्यायति तद्भवति ध्यान-ग्रन्थों में एक उदाहरण देकर बताया है - जैसे कीट (लट) भौरे की मिट्टी के साथ मिलकर स्वयं को भ्रमरी अनुभव करते हुए धीरे-धीरे वह भ्रमरी ही बन जाती है, उसी प्रकार साधक ध्येय स्वरूप का अनुभव-स्मरण करते-करते वह ध्येय रूप बन सकता है। काव्य ग्रन्यो में इस पर एक लघु रूप दिया गया है कि महाराज रामचन्द्र जी सीता के विरह से व्यथित हुए मन-ही-मन 'सीता-सीता' पुकारते रहते थे। सोते-उठते-बैठते उनके मुंह से बस एक ही अक्षर शब्द निकलता ... "सीता-सीता !"
एक बार बैठे-बैठे रामचन्द्रजी के मन में विचार आया और वे चिन्तित से हो गए। पास में बैठे नक्त हनुमान ने स्वामी की निता देखी तो इसका कारण पूछा । रामचन्द्रजी ने पहले तो कुछ संकोच किया, फिर कुछ चिंता के साथ बोले-पवनपुर ! मेरे मन में एक शंका हो उठी है। कहा जाता है कि-फीट स्वयं को गरी अनुभव करती हुई श्रमरी बन जाती है,पों कि यद् ध्यामति
₹ बोगशाम