Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
नाक के अग्र भाग पर दृष्टि को स्थिर कर सुखासन से बैठा है वही मान करने का अधिकारी है।
तो ऐसा योग्य ध्याता -ध्यान करने वाला जब अपने व्येय पर----लक्ष्य व इप्टदेव पर मन को स्थिर करता है तभी ध्यान में लीनता व एकाग्रता आती है। ____ ध्येय के विषय में भी तीन प्रकार की कल्पनाएं है- परालम्बन, स्वल्पा लम्बन और निरवलम्बन ।
१ परालम्बन--में दूसरी वस्तुओं का आलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयत्न किया जाता है । जैसे कोई प्राटक (काला गोला बनाकर) . पर दृष्टि को स्थिर रखकर मन को उस पर टिकाने का अभ्यास करता है। आगमों में भगवान महावीर की साधना का वर्णन करते हुए बताया हैएगपोग्गलनिविट्ठ विठिए'-एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करके घ्यान मुद्रा में खड़े रहे । यह एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाना भी प्राटक जैसी ही कोई विधि हो सकती है, जिसमें किसी वस्तु पर दृष्टि को स्थिर कर .. लिया जाता है। इसी तरह वृक्ष के पत्तों पर, शून्य आकाश पर आदि . विविध वाह्य मालम्बन लेकर उन पर मन को स्थिर रखने का प्रयत्न किया जाता है।
२ स्वरूपालम्बन--यह ध्यान का दूसरा प्रकार है, पर वस्तु अर्थात् बाहर से दृष्टि को हटाकर मुंद लेना और कल्पना की आंखों द्वारा अपने स्वल्प का दर्शन करना यह इस ध्यान की विशेषता है । इस ध्यान में अनेक प्रकार की रचनाएं व गल्पना की जाती हैं। योग शास्त्र, ज्ञानार्णव आदि घों में पिंडल्य, पदस्य आदि चार भेद बताए हैं उनमें तीन ध्यान इसी श्रेणी के हैं। . पातीत ध्यान निरवलम्बन की श्रेणी में जाता है।
३ निरवलम्बन-यह ध्यान का तीसरा तथा उत्कृष्ट तम प्रकार है। इसमें कोई आलम्बन रहता है और न बिचार । मन विचारों एवं निकली।
१ नगवती गुम ३२