Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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... जैन धर्म में तप : एक दिन नष्ट होगया। बलदेव, वासुदेव और तीर्थकरों का शरीर भी आखिर एक दिन नष्ट होता है। जैसे पानी का बुख़ुदा क्षण भर में विलीन हो जाता है वही दशा इस शरीर की है- “पानी का पतासा तैसे तन का तमाशा है।"
यह जो धन, वैभव, साम्राज्य आदि प्राप्त हुए हैं वह भी सब नश्वर । है। बादलों की चंचल छाया है। इस प्रकार नश्वरता का, अनित्यता का चिंतन करना । भन्त चक्रवर्ती राजमहलों में बैठे हुए भी जब अपने शरीर की, अपने धन-वैभव की अनित्यता का चिंतन करने लगे-कि "अरे ! जिस शरीर का इतना सौन्दर्य था, एक अंगूठी निकल जाने से भी वह सौन्दर्य घट गया तो बस, यह सौन्दर्य तो क्षणिक है, यह सब वस्तुएं अनित्य है"--इसी . अनित्य भावना में लीन हुए वहीं बैठे-बैठे केवली बन गए ! . . .
३ अशरणानुप्रेक्षा-संसार में कोई किसी का शरण-रक्षक नहीं है । तर, धन, परिवार आदि सब सुख के साथी हैं-जव दुख आता है, रोग उत्पन्न होता है तो कोई किसी की पीड़ा को टा नहीं सकता। बड़े-बड़े चक्रवर्ती भी इस धन वैभव से अपनी रक्षा नहीं कर सके। आत्मा की रक्षा करने वाला एक धर्म ही है । धर्म अर्थात् अपना सत्कर्म ! वही आत्मा का रक्षक है, वहीं शरण है, अन्य कोई शरणभूत नहीं है ! अनाथी मुनि की तरह संसार की प्रत्येक वस्तु को असार एवं अशरणभूत समझना-अशरणानुप्रेक्षा है।
४ संसारानुप्रेक्षा-संसार के स्वरूप का चिंतन करना-यह संसार दुःख मय है, कष्टमय है। आत्मा कभी नरक में जाता है तो यहां भयंकर कष्ट व पीड़ाएं शेलता है। वैसे ही, तिथंच योनि तथा अन्य योनियों के कष्टों का स्मरण कर आत्मा को जन्म मरण से मुक्त करने के उपायों पर विचार करना । संसार की शोकाकुल दशा से मन को निराकुल भावना को और लाना-यही संसारानुप्रेक्षा है।
इन चारों भावनाओं से मन में वैराग्य की लहर उठती है, सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम होता है और आत्मा निराकुल, गांश मानन्दमय स्वरूप की ओर बड़ने लगता है। इसलिए आत्मशांति के लिए, मग को .. निमोह बनाने के लिए इन भावनाओं का बहुत बड़ा महत्व है।