Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ध्यान तप हैं जो मुख्यरूप से 'सुख विपाक' एवं 'दुख विपाक' में दिखाये गए हैं। सुख के हृदयाल्हादक एवं दुःख के रोमांचक विपाकों-परिणामों पर चिंतन करते रहने से पाप के प्रति भय, घृणा एवं लगाव कम हो जाता है, जिससे आत्मा में पाप से बचने का संकल्प जागृत होता है। तो इस तरह पाप के कटु परिणामों और पुण्य के शुभ फलों पर जो चिन्तन किया जाता है वह धर्म ध्यान के तीसरे भेद-विपाकविचय के अन्तर्गत आता है ।
४ संस्थान विचय-संस्थान का अर्थ है आकार । लोक के आकार एवं स्वरूप के विषय में चिंतन करना कि लोक का स्वरूप क्या है ? नरकस्वर्ग कहाँ है ? आत्मा किस कारण भटकता है ? किस-किस योनि में क्यादुख व वेदनाएं हैं ? आदि विश्व सम्बन्धी विषयों के साथ आत्म-सम्बन्ध जोड़कर उनका आत्माभिमुखी चिंतन करना संस्थान विचय है।
धर्मध्यान के लक्षण व मालम्बन धर्मध्यान वाले आत्मा की पहचान जिन कारणों से होती है उसे लक्षण कहते हैं । ये लक्षण चार हैं :
१ आज्ञारुचि-रुचि का अर्थ है विश्वास, मानसिक लगाव और दिलचस्पी । जिनेश्वर देव की आज्ञा में, सद्गुरुजनों की आज्ञा में विश्वास रखना व उस पर आचरण करना यह धर्मध्यान का प्रयम लक्षण है। यदि आज्ञा
आदि में रुचि न होगी तो वह आगे धर्मध्यान भी कैसे कर सकेगा। इसलिए रुचि उस कार्य की सफलता का चिह्न है । जिस मनुष्य को जिस विषय में रुचि होगी, वह उस विषय में अवश्य ही आगे बढ़ेगा। अतः यहाँ अपेक्षा की गई है कि सर्वप्रथम जिनाजा में हमारी रुचि हो।
२ निसर्गचि-धर्म पर, सवंशभाषित तत्वों पर और सत्य-दर्शन पर यदि हमारे हृदय में सहज धद्धा होती है, जिसका कारण कोई बाहरी न होकर दर्शनमोनीय कर्म का आयोपशम होता है, तो वह धद्धा, वह रुचि निसर्गतनि कहलाती है।