Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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उनमें अनेस भवों में संनित दुष्कर्म को स्वाध्याय द्वारा क्षण भर में रागावर जा सकता है।
स्वाध्याय का फल बताते हुए भगवान ने कहा है---स्वाध्याग- प्रकार से ज्ञान की उपासना है, इस कारण स्वाध्याय करने से शान सम्बन्धी ज्ञानावरण कमों का दाय हो जाता है । समाए नामावनिर फम्म सवेई।
स्वाध्याय स्वयं में एक बहुत बड़ी तपश्नया है। इने सबसे बड़ा मानते हुए भागायों ने कहा है
न वि अस्थि न वि अ होही सन्माय समं तपोकम्मर बाध्याग एक अभूतपूर्व तग। इसकी बराबरी का तप तीन कभी हुआ है, वर्तमान न कही है और न भविष्य में भी होगा। मार देखिए कितनी बड़ी बात कही गई है-स्वाध्याय के विषय में । सामान के समान विश्व में दूसरा कोई ता नहीं- इसका अ साध्याम अपनी दृष्टि से एकही अनामत तग है।
वैदिक सन्धों में भी जन पमं की भांति स्वाध्याय को माना गया . कला-तपोहि स्वाध्याय:'--स्वाध्यायलय में एकता
. भागना में भी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- स्वाप्यागान मा प्रमः। सामान में उतर गावा, अर्धा जो दवार को पारचार घटाई को मिली हो जाती है और मामले को भी दिन माता है की उसमें जानने का दावा, मी मारमा
माना frier पारो ना frat TRA
मनाभी
वाल्यापापिष्टता संप्रयोगः ... Maiy