Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
४८०
.. जैन धर्म में तो मार्ग पर तथा साथ ही उनके द्वारा निषिद्ध कार्यों पर चिंतन-मनन करना यह . धर्म ध्यान का प्रथम भेद है-आज्ञाविचयः।
२ अपाय विचय---अपाय का अर्थ है-दोप या दुर्गुण ! आत्मा में अना दिकाल से पांच दोष छुपे हुए हैं-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद. कपाय एवं योग (अशुभ योग) इन दोपों के कारण ही मात्मा जन्म मरण के चक्र में भटकता. है, दुःख, वेदना एव पीड़ा प्राप्त करता है। इन दोपों के स्वरूप पर विचार करना, उनसे छुटकारा कैसे मिले, कैसे उनको कम किया जाय तथा किन-किस साधनों से उन दोपों की शुद्धि हो सकती है, इस विषय पर चिंतन करना अपाय विचय है । चिंतन करने से ही चिंता दूर होती है, विचार करने से ही विचार शुद्ध होता है-अतः दोपों के विषय में विचार करने का फल होगा दोपों से विमुक्ति ! तो यह धर्म ध्यान का दूसरा स्वरूप है।
३ विपाक विचय-ऊपर जो पांच दोप बताये हैं वे ही कर्म बंधन के कारण हैं। क्योंकि वह पांचों प्रमाद है और प्रमाद ही वास्तव में कर्मबंध का हेतु होने से स्वयं भी कर्मल्प है-पमायं कम्म मासु । कर्म बांधते समय मधुर भी लगते हैं, तथा उनके परिणाम की सही कल्पना भी नहीं होती किन्तु ऐसा अज्ञानी एवं मोहग्रस्त आत्मा को ही होता है । ज्ञानी आत्मा तो कमाँ के विपाक को समझता है । वह मानता है
सयमेव फडेहि गाहइ नो सस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं' आत्मा अपने स्वयं किये हुए कमों से ही बंधन में पड़ता है और जब तक उन कमों को भोगा नहीं जायेगा, उनसे मुक्ति नहीं होगी। आराक्ति, अज्ञान एवं मोहवश बांधे हुए कर्म जव फल में, विपाक में आते हैं तो उनका भोग बहुत ही दुखदायी एवं श्रासजन्य होता है-जं से पुणो होइ दुहं विवागे' थे कर्म विपाक के समय बहुत ही दुःखदायी होते हैं। भगवान ने शुभाशुभ . कों के विपाक-परिणामों को बताने वाले अनेक ऐतिहासिक दृष्टांत भी दिए
१ मुमतांग १८३ २ मुभतांग २४ ३ उत्तराध्ययन ३२०४६