Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
स्वाध्याय तप
होकर स्थिर आसन से बैठना चाहिए तथा मन को अपने इष्ट देव में लगा देना चाहिए। मंत्र उच्चारण करते समय उसके अर्थ का चिन्तन करने से, इष्टदेव के स्वरूप का ध्यान करने से मन स्थिर हो जाता है। जिसका विस्तृत वर्णन ध्यान प्रकरण में किया गया है । इन सब बातों का विचार करः जप करना चाहिए । जप में माला, स्तोत्र पाठ, लोगस्स का ध्यान, नवकार मंत्र का स्मरण तथा अन्य इष्ट मंत्रों का स्मरण किया जाता है। यह सब परिवर्तना-स्वाध्याय है । ध्यान के भेदों में भी इसे धर्म ध्यान के स्वरूप में बताया गया है।
४ अनुप्रेक्षा-तत्व के अर्थ व रहस्य पर विस्तार के साथ गम्भीर चिंतन करना । अनुप्रेक्षा में एक प्रकार का चिंतन प्रारम्भ किया जाता है, फिर उसी सुत्र को पकड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ा जाता है और उससे सम्बन्धित विषयों पर चिंतन चलता जाता है। अनुप्रेक्षा-एक प्रकार की सीढ़ियां है जो तन्मयता के महल पर चढ़ने के लिए एक से दूसरी सीढ़ी, दूसरी से . तीसरी सीढ़ी पर चढ़ते हुए आगे से आगे ऊंचाई पर पहुंचा जाता है। .. इसका विशेप वर्णन ध्यान के संदर्भ में किया गया है। क्योंकि अनुप्रेक्षा में एक प्रकार की ध्यान की स्थिति ही आ जाती है ।
धर्मकथा भी स्वाध्याय है ५ धर्मकथा- स्वाध्याय का यह पांचवा भेद है। पढ़ा हुआ, चिंतन मनन किया हुमा तथा अनुभव से प्राप्त किया हुआ श्रुत जब लोककल्याण. .. की भावना से शब्दों द्वारा प्रकट कर दूसरों को समझाया जाता है तब वह तत्त्व कथन--धर्म फया कहलाता है । इसे ही प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान आदि कहा जाता है।
धर्म कथा को पांचवे स्थान पर रखने का एक कारण यह भी है कि साधारण ज्ञानी कभी प्रवक्ता व उपदेशक नहीं बन सकता। इसके लिए बहुत अध्ययन, अनुभव और स्व-मत तथा पर-मत का प्रामाणिक ज्ञान होना चाहिए। मन निर्भीक होना चाहिए, तथा वाणी में शिष्टता, मधुरता आदि गुण होने चाहिए। प्रवचन करने वाला धर्म में ज्येष्ठ माना जाता है-भासंतो होइ