Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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भिक्षाचरी तप
जहा दुमस्स पुप्फेतु भमरो आवियइ रसं ।
न य पुर्फ फिलामेइ सो य पोणेइ अप्पयं । जैसे भ्रमर फूलों पर घूमता हुआ थोड़ा-थोड़ा उनका रस पीता जाता है, फिर उड़ जाता है, और फिर किसी अन्य फूल पर जाकर उराका घोड़ा सा रस पी लेता है । इस प्रकार थोड़ा-घोड़ा रस पीकर वह स्वयं भी संतुष्ट हो जाता है और फूलों को भी कोई हानि नहीं पहुंचाता। इसी प्रकारमहगारसमा बुद्धा-मधुकर के समान विद्वान मुनि होते हैं, वे गृहस्य के घर में सहज रूप में बने हुए भोजन आदि में से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह भी कर लेता है और गृहस्थ को भी कोई नाप्ट नहीं होता। नियुक्तिकार आचायों ने बताया है-जैसे तृण के लिए वर्षा नहीं होती, हरिण के लिए तृण नहीं बढ़ते, मधुनार आदि के लिए पुष्प आदि नहीं पालते, वैसे ही साधु के लिए गृहस्थ के घर में भोजन नहीं बनता । अर्थात् जैसे पर्या, तृण और फल-फूल अपने सहज रूप में होते हैं बसे ही गृहस्व को घर में भोजन भी सहज रूप में बनता है. उस भोजन में से मधुकर पी भांति श्रमण घोड़ा सा अन्न महण कर लेता है। श्रमण को यह पत्ति माधुकरी वृत्ति पहलाती है। मधुगार और गौ का आदर्श सामने कर जो भिक्षा की जाती है। वही भिक्षाचरी, गौरी और माधुकरी वृत्ति कालाती। मधुकार को यह यत्ति न मंचन जैन परम्परा में हो, अपितु बौर परम्परा में एनं वैदिक परम्पया में भी लापा भिक्षा विधि मानी गा
त्तिसंक्षेप मिक्षापरी का एक नाप है यत्ति संक्षेप । नाम अपने माय में नाम । गोवरी में मन किन भार प्राप्त नही हो सकता। कभी गर्म थाहारी बताने पर नागी झाल: मिल सकती .
राहिम
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(7) मधमान
जिपमः।