Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप 'मिश्री' देख विचार फर एक तीर, अय फट ।
तन फो, मन को, ज्ञान को, क्रोध करत है नष्ट। लोग कहते हैं 'एक तीर से दो शिकार' लेकिन क्रोध तो ऐसा दुष्ट है कि .. एक तीर से तीन शिकार करता है, वह तन को, मन को और ज्ञान (मात्मा) . को-तीनों को ही नष्ट कर डालता है। तो, ऐसे दुष्ट क्रोध के उदय का निरोध करना, और उदय में आये हुए क्रोध को फलहीन कर देना-यह है क्रोध प्रतिसंलीनता तप ।
- मान से हानि क्रोध जिस प्रकार प्रीति का, प्रेम एवं स्नेह का नाश करता है उसी प्रकार मान-विनय का नाश करता है-माणो विणय नासणो नग्नता-जीवन का सबसे बड़ा सद्गुण ही नहीं, किन्तु समस्त सद्गुणों की जननी भी है। यदि जीवन में नम्रता नहीं रही तो फिर कहना चाहिए-सद्गुणों के विकास की वहां कोई सम्भावना भी नहीं रहीं । इसलिए कहा है -
अभिमानी के हृदय में क्या सद्गुण फा काम ।
फटी जेब में क्या कभी टिक सकते हैं दाम ! फटी जेब में पैसे नहीं टिक सकते, दिवाले पड़े में पानी नहीं टिका, सकता, उसी प्रकार अभिमानी के हृदय में गद्गुण नहीं टिक सकते । भगयान महावीर ने तीन व्यक्तियों को मान पाने के अयोग्य (अपाय) बताया है। उनमें सबसे पहला नंबर है-अभिमानी । अहंकार करने वाला चाहे कितना बड़ा शास्यान्यासी हो, वास्तव में तो उसे अशानी ही माहा गया है। भगवान ने कहा है -- बाल जपो पगम-अभिमान यही हारता है, ओ मशानी है। जो विद्वान है, कुलीन है, भास्त्रों का रहस्य समझता है, यह पाभी महंगार नहीं करता--विद्वान् कुलीनो न करोति गयं-दिनारकों गा गह गायन गाय
१ दशवकालिक ८३ २ सीन यो शान नहीं देना ... अहंताग, मदानही कोर रगतीनुप को।
३ सूत्रकृयाग १११११२