Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में जिस दोष को शुद्धि के लिए दीक्षा पर्याय का छेदन किया जाता हो उसे वेदाह-प्रायश्चित्त कहा जाता है। इसमें भी दोष की गुरुता के हिसाब से मालिक, चातुर्मालिक आदि अनेक भेद हैं । वेद सुत्रों में मुख्यतः इसी कोटि के प्रायश्चित्त का वर्णन है। तप रूप प्रायश्चित्त से इस प्रायश्चित्त की साधना कठिन है। क्योंकि तप में तो अधिकतर शरीर पर ही भार पड़ता है, किन्तु इस प्रायश्चित्त में मनुष्य के अहंकार पर सीधी चोट पड़ती है। यह प्रायश्चित देने पर दीक्षा में छोटे साधु बड़े बन जाते हैं। छोटे साधुओं का विनय करना उपचास आदि से भी अधिक कठिन कार्य है। इसी विनय के अभाव में तो बाहुबली एक वर्ष तक वन में खड़े रहे कि भगवान के पास जाऊंगा तो यहां छोटे साधुओं को वदना करनी पड़ेगी। जब यह अहंकार दुर हुआ और .. एक कदम बढ़ाया तो बस केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इस प्रायश्चित्त में जितने दिन का छंद दिया जाता है उतने दिनों में कोई दीक्षित हुआ हो तो . वह उससे दीक्षा में बड़ा मान लिया जाता है। अर्थात् इसमें उतने दीक्षा के . दिन काट दिये जाते है।
मूलाह-(नई दीक्षा) यह आठयां प्रायश्चित्त है। OER सामु कमीकमी इतने गुरुतर दोषों का सेवन कर लेता है कि मालोचना और तप आदि से भी उसकी शुद्धि नहीं हो सकती। उन दोषों के सेवन से यह मारिस से सयंमा प्रष्ट हो जाता है। वैसे ममुर, गाय, भेन आदि को ना, याला हो ऐसा कर भूत, निप्य आदिती गोरी, ब्रह्मान गन का भंग आदि। ये मुन दोर माने जाते हैं। इनमें सेना में नारियलट हो जाता है, उन पर को शुद्धि के लिए नारित पकाया न कर नई दीसा ली गली .
मा पुन: भारोपण करना होता है। इसलिग मूलाई प्रापरित
मनापाप्याहा मारिन Pan t , it
पुग्दर दर को बुद्धि के isxi