Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में
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जिससे आठ कर्म का वि+नम (विशेष दूर होना) होता है उसे नि कहते हैं, अर्थात् विनय आठ कर्मों को दूर करता है, और उसने चार का अन्त करने वाले मोक्ष की प्राप्ति होती है, अत: सर्वज्ञ भगवान ने 'विनय' कहा है | इसका अभिप्राय यह है कि कर्म का नाश (विनयन) करने के कारण ही इसे विनय कहा जाता है। इसी प्रकार की व्याख्या नवन मारोद्वार की वृत्ति में भी उपलब्ध होती है-विनयति क्लेशकारकमध्टप्रकारं कर्म इति विनयः क्लेश पैदा करने वाले आठ कर्मों को जोर करे वह 'विनय' है|
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विनय-शब्द से नम्रता का भी अर्थ निकलता है, जो अहंकार स्वयता आदि को दूर करे- वह 'विनय' ।
इस प्रकार भाव और शब्द दोनों ही दृष्टि से विनयका रूपमारे सामने जाता है कि नत्रता, सेवा, आत्मसंयम, गुरु अनुशासन सब विनय है । विनय का फल तो मोक्ष है ही । यह बात स्वयं बागमकारों ने भी उद्घोषित की है - जैसे वृक्ष का मूल है जड़ और अंतिम फल ! उसी प्रकार एवं धम्मस्त विषओं मूलं परमो से मुक्यो । धर्म रूप वृक्ष का मूल विनय है, और उसका अन्तिम फल- हे मोक्ष है।
विनय को महिमा
जैन धर्म में विनय को धर्म का बना कर एक बहुत से महपूर्ण वष्य की ओर संकेत किया है। वह यह है हिन परिकर की मूठभूमि है। छोटे से छोटा र
हर बड़े से बड़ा आवश्यक होना चाहिए। सो का, विनय सहित धर्म भी न मे धर्म नहीं के
यह घोषणा कर दी
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कालिक असर
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नए सर्व
जैन एक पग के महान विज्ञान जावादिनी महिमा में और भी पार नाका -
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