Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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- जैन धर्म में गुरुजनों के आने की सुचना मिलने पर अगवानी कारने सामने जाना, ददरे .... तब तक सेवा करना, जाएं तब कुछ दूर तक उनके साथ जाना पह सुधा. विनय का स्वरूप है।"
इसी विनय का दूसरा रूप हैअनाशातना ! अनागातना नन्द कसा सीधा अर्थ इतना ही है कि-देव. गुरु, धर्म आदि रत्नमय की अवहेलना अपमान हो ऐसा व्यवहार न करना। वैसे शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से आशातना का अर्थ है-ज्ञान आदि सद्गुणों की आय-प्राप्ति का मार्ग रोकना, राति पारना-'आसातणा पामं न णादि आयस सातगा।" भाव नहीं कि पूज्यजनों की अवहेलना हो ऐसा काय न करना, जिम महार से शिणी प्रकार की अशिष्टता व असभ्यता झलके वैसा व्यवहार न करना । भागातना : के कहीं-कहीं ४५ भेद और कहीं नहीं ३३ भेद बताये गये हैं। अरिहंत, भरि... हतप्रापित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, सावंत, सभोगी एवं गति आदि पांच मान के धारणा - इस प्रकार इन पन्द्रह से आगात ना न मारना उनकी भक्ति करना और उनकी स्तुति करना प्रसार १५+३ अनाशातना रे ये ४५ भेद होते हैं।
रामवामान एवं सातपंध मे आयातमा के ३३ भद बताये हैं। में भेट वास्तव में गुरूजनों आदि साय रात दिन के व्यवहार की एक मुम्बर परिपाटी बताते हैं। जैसे-जनों में आम न मानना, के बराबरन . शाना, बो ही पंटो माप, बाहार करते समय बोलते समय .. या निक जीरे प्रकार में उनकी नाग-नादियान
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बार करना, जो भा में काम राnि a माँ की है