Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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विनय तप
विणओ जिणसासणे मूतं विणीओ संजनो भवे । विणयाओ विप्यमुक्कस्स कओ धम्मो को तवो । विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयम की आराधना कर सकता है। जिसमें विनय का गुण नहीं है, वह क्या तो धर्म की आराधना कर सकेगा और क्या तप की ? अर्थात् धर्म, तप एवं संयम की आराधना यही कर सकता है जो विनयी होगा, नत्र होगा और श्रद्धा एवं सद्भावना ते युक्त होगा ।
विनय गुणों का आधार माना गया है, जैसे सब वनस्पतियों को उत्पन्न करने वाली पृथ्वी है, समस्त जीवों का आधार है, वैसे ही विनय विश्व के समस्त सद्गुणों का आश्रय स्थान है, केन्द्र है। विनीत व्यक्ति गुणों को प्राप्त करता है, उससे संसार में उसकी कीर्ति, यश एवं प्रतिष्ठा बढ़ती है
नरचा नमइ मेहावी तोए कित्तो से जापइ । हव किच्चाणं सरणं भूयानं जगह जहा
विनय को महिमा में इससे बड़कर और या कहा जा सकता है ! विनय को विश्व के समस्त गुण समस्त विद्याएं और सभी सम्पत्तिया स्वयं आकर प्राप्त करती है। विधा स्वयं विनीत को पारू अपने को
ही अकृत है सुशील का
कारण कर दोलिए
मास्त्र में कहा है
वित्तीय
अनिमेष से सब विपक्ष
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विनय के ग्रात कार
जैन धर्म में विनय की इव्य है कि वेदना
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संपत्ती विपत्ता प
परेत है और किनी की