Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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.... जैन धर्म में सप संजमे" गरहा यि यं पं सव्वं दोसं पविणेति, सव्यं बालियं परिगाए --- नहीं (आत्म-निरीक्षण और पापों के प्रति घृणा) यही संयम है, इसी गे सब दोगों का प्रक्षालन होता है तथा सब बालभाव (मूखंता-अज्ञान) दूर हो जाते हैं।" स्याविरों के इस उत्तर से अणगार कालास वेसिय पुत्र को पूर्ण समाधान हो गया।
तो आपने देखा कि पापों के प्रति गहाँ, निदा और मालोचना-गही संयम का मुख्य-प्रयोजन है, और उसकी यही उपलब्धि भी है । आलोचना गे . द्वारा-गर्दा का~पापों के प्रति घृणा का गुरुजनों के समक्ष उसको स्वीकार करने का मार्ग प्रशस्त होता है।
प्रतिक्रमण : पापों का प्रक्षालन आलोचना के बाद दूसरा प्रायश्चित्त है--प्रतिक्रमण । प्रतिप्रमाण-जन जीवन नर्या का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अति आवश्यक अंग है । इसीलिए जीवन में अवश्य करने योग्य कार्यों में इसकी गणना कर इसको 'आवश्यक' . कहा गया है । अनुयोग द्वार मूत्र में साधु एवं धावक को लिए छह आवश्यों का विधान किया गया है, वहां चोया नावश्यक कृत्य है-प्रतिक्रमण । प्रतिजमण-एक प्रायश्चित्त भी है, आवश्यक कृत्य भी है। यह एक प्रकारमा स्नान है, दोगों का प्रक्षालन है। नाधर जिस गिया के द्वारा आत्मनिरीक्षण, मात्म-परीक्षण एवं पनालाप के द्वारा अपने किये हा दोषों, अपराधों एवं पापों का प्रक्षालन पर शुद्ध हो सकता है उसका एम.ही मार्ग है प्रतिमा!
प्रतिमा का अर्थ जीवन में जो पाप स्वयं रिये जाते. मगों में गरमागे जागे हैं, तथा भूगलो में सारा किए पापों का अनुमोदन किया जाता है व पामों गो नि तिजो मानलिए पानासार किया जाता है, तो भी
२ ममामा
पापा ममहानुET.