Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप
३४३.
राजा को उसकी तटस्थवृत्ति पर बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने उससे पूछा तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने बताया - "कुर्सी के आने जाने में प्रसन्नता और दीनता कैसी ? सन्मान तो गुणों से होता है, यदि गुण मुझ में होंगे तो आप
और जनता कुर्सी छूटने पर भी मेरा सम्मान करेंगे, गुण नहीं है तो कुर्सी मिलने पर भी अधिक दिन टिकेगी नहीं ? फिर प्रधानमंत्री बनने का अभिमान कसा ? और पद से हटने का दुःख कैसा।" ।
वास्तव में विनम्र व्यक्ति तो अधिकार प्राप्त कर और अधिक विनम्र होता है। उसका स्वभाव सदा ही विनयशील रहता है ? गौतम गणधर इतने ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित होकर भी कितने विनम्र ! और कितने मधुर स्वभाव के थे ? क्योंकि उनके स्वभाव में, हृदय के कण-कण में विनम्रता रमी हुई थी !
तो उक्त तीन प्रकार से हम अभिमान को विजय कर सकते हैं और मान-प्रतिसंलीनता तप की आराधना कर सकते हैं। क्रोध की भांति मान प्रतिसंलीनता में भी दो बातें बताई गई हैं-~मान के उदय का निरोध करें व उदय प्राप्त मान को विफल बना दें।
माया से दूर रहो माया-तीसरा कपाय है। मायामोहनीय कर्म के उदय से मनुष्य माया में प्रवृत्त होता है ।
साधारणतः माया का अर्थ है दुरंगा व्यवहार-मन में और तथा वचन में और-बाहर-भीतर का दुरंगापन-यह माया को पहचान है । राजस्थानी भाषा में माया का स्वरूप बताते हुए कहा है--
तन उजला, मन सांवला बगुला फपटी भेष ।
यां सू तो फागा भला बाहर भीतर एफ। अपर से उजलापन दिखाना और मन में कलुप भाव - पाप छिपाए रखना---यही माया है- पापट है. धोखा है तथा छल है !
क्रोध य अभिमान में भी माया को अधिक खतरनाक बताया गया हैमषोंकि ये दोनों प्रकट दोप हैं-फोध व गान सट दियाई देते हैं- मनुष्य