Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप
इस प्रश्न का सीधा समाधान यही है कि मुनि-सावध वचन अर्थात्पापकारी वचन का त्याग करता है, अशुभ वचन का परिहार करता है, इसलिए अशुभ एवं सावध वचन का त्यागी, सावद्य वचन के लिए मौन रखने के कारण उसे 'मुनि' कहा जाता है। यह मौन जीवन भर के लिए होता है मत: 'मुनिपद' भी जीवन भर के लिए सार्थक होता है ।
मौन का दूसरा अर्थ है-वचन योग का निरोध । वचन योग का सर्वथा निरोध छयस्थ दशा में संभव नहीं है, वहां तो सिर्फ भाषा-प्रयोग अर्थात् शब्द प्रयोग का ही निरोध हो सकता है । शब्दों का उच्चारण मुख से न किया जाये, यह प्रचलित मौन का अर्थ है । इसमें भी कई प्रकार के मौन होते हैंकुछ मौन व्रत में शब्द प्रयोग का तो त्याग किया जाता है, किन्तु आंख, हाथ आदि के संकेत, करके भावों को प्रकट करना, लिखकर जताना आदि चालू रहते हैं और कुछ मौनव्रत में संकेत आदि का भी सर्वथा त्याग कर दिया जाता है।
वचन प्रतिसंलीनता के तीसरे भेद में मान का दूसरा अर्थ ही ग्राम है। क्योंकि सावधवचन का त्याग रूप मौन तो अकूशलवचन निरोध में ही आ जाता है, उसको बार-बार कहने की कोई जरूरत नहीं रहो, अतः यहां पर अकुशल वचन, एवं कुशलवचन दोनों का निरोध रूप ही मोन अभिप्रेत हैऐसा हमारा अनुमान है !
फाय-सपोच वचन प्रतिसंलीनता के बाद काय प्रतिसंलीनता तप का वर्णन आता है। फाय प्रतिसंलीनता का अर्थ है- काया का संकोच-अर्थात् गायसंयम ! हाथ, पैर, नाक, आंख, कान आदि शरीर के प्रत्येक अंग का संयम रखना, इन्हें विषयों की तरफ जाने से रोकना तथा मेवा, भक्ति, परोपकार आदि कागों में लगाना यह काय-संयम है । पान में कहा है
हत्यसंजए, पायसंजए वापसंजए संजए इन्दियास । सभाप रए सुसमाहियप्पा सुत्तत्पं । वियागइ ने समिप ।'
१ दाकातियः १०१५