Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
५ प्रफुफ-आलोचित अपराध का तत्काल प्रायश्चित देकर अपराध
की शुद्धि कराने में समर्थ हो । क्योंकि जव दोपी अपने दोप व अप. राध का प्रायश्चित मांगता हो तो फिर उसमें विलंब नहीं करना
चाहिए । शीघ्र ही प्रायश्चित देकर शुद्ध करें। ६ अपरित्रायो आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने
प्रकट नहीं करने वाला हों। क्योंकि आलोचना करने वाला अपने गुप्त रहस्य प्रकट कर उनका प्रायश्चित लेता है, यदि आतोनना देने वाला गंभीर न होकर छिछला हो, तो वह उसके दोषों को दूसरो के समक्ष प्रकट कर देगा। जिससे लोगों में उसकी हीलना हो सकती है । और फिर उसके समक्ष कोई अपना गुप्त दोष प्रकट करना नहीं चाहेगा । इसीलिए शास्त्र में विधान है कि आलोचना दाता आलोचना । करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकट करदें तो उसे भी उतना ही प्रायश्चित आयेगा जितना कि दोष मी नालोचना करने वाले को। इसका स्पष्ट अर्थ है--किसी के दोष का उदाह करना भी
बहत बड़ा दोष है। ७ निर्यापा-यदि किसी ने दोष गुगत र किया हो, किन्तु शरीर से
अशक्त हो, बीमार हो, उसकी शुद्धि हेतु जो प्रायनित का जश्नरण वादि दिया जाय उसे यह पूरा निर्वाह न कर सकें तो उसे योहा-धोड़ा
पारके प्रायग्नित देवे और उनकी शुद्धि काना ८ अपायदा-यदि कोई दोष कारसे उसकी मालोचना करने में संकोच .
करता हो, तो जगेदो छिपाने एवं आलोचना करने के भारतयमित परिणाम समझा कर बालोचना करने के लिए पारमको ।
में निधन हो । हम समभालानना देने वालों में भी ये विपनानी माग गादिः आनीनमा पालो पाना ममता एवं विस्तार गरी पाम भोगना हार गरे और
स्व षो गुम हो गया।
१ मममी
२५ तमाशानन मूष ८ .