Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रायश्चित्त तप
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. . जो आगे बढ़ता है, वह चन्दन को लकड़ियां प्राप्त कर लेता है, जो गहरा उतरता है वह मोतियों से झोली भर लेता है।
तप का मार्ग, साधना का पथ किनारे बैठे रहने का नहीं है, जो किनारेकिनारे घूमता है, जंगल के बाहर-बाहर शोधता है उसे कुछ नहीं मिलता, किन्तु जो इस तपोमार्ग पर आगे से भागे बढ़ता रहता है, और आगे ! खूब गहरा उतरता जाता है, वह आत्मदर्शन रूप चन्दन, स्वरूपदर्शन रूप मोती प्राप्त कर लेता है। इसीलिए जैन धर्म में तप को विधि-बाहर से भीतर की ओर बढ़ती है । अन्तर्मुखी होती है। तप का क्रम इसी प्रकार बताया गया है कि साधक निरन्तर आगे से आगे एक तप से दूसरे, दूसरे से तीसरे सप की ओर सतत बढ़ता ही जाता है और चन्दन एवं मोती प्राप्त कर लेता है।
बाह्य तप का वर्णन हमने पिछले प्रकरण में किया है। साधक वाह्य तप तक आकर ही नहीं रुक जाता, वह बाह्य से आभ्यंतर की ओर गतिशील होता है । सद्गुरुदेव उसे प्रेरणा देते हैं- माधक | और आगे बढ़ ! आभगन्तर में गहरा उतरता जा ! यह तुले यह मिलेगा, जो आज तक नहीं मिला। अनन्त अनन्त जन्मों में जो नहीं मिला,वह सजाना मिल जायेगा । जरा आगे याता जा । तप की गहराई में उतरता जा ! देश !
धाभ्यन्तर तप में मन को विशुद्धि, सरलता और एकाग्रता की विशेष साधना होती है। बाप तप की साधना से माधक अपने रान गो, मग को साब लेता है, सहिष्णु बना लेता है और उसका नंशोधन पार लेता है । विगुन मग मीही तिर हो सकता है, विनय हो सकता है, ध्येग में लीन हो समता है, बोर सय ममत्व से मुक्त भी हो सकता है इसीलिए गाहा मप से मार को ओर पाने गो से छह सीवियां जनधर्म में गाई गई। ETATAR Tो गति सामना की भी गोदिया बताई गई है, जिनमें पानी गीली - मायनित।
भूल करने की मा TIME मारमा पसभामा समान म