Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप
३६१ की प्राप्ति बताई गई है। अत: पहले मन का शुद्धीकरण करके फिर स्थिरीकरण किया जाता है, यही मन प्रतिसंलीनता के तीन भेदों में स्पष्ट किया गया है कि सर्वप्रथम मन को अशुभ विचारों में जाने से रोको, फिर उसे शुभ विचारों से पवित्र वनाओं, शुभ भावना के द्वारा निर्मल वनाओ और उसके बाद किसी एक शुभ ध्येय पर उसे एकाग्र करो। एकाग्रता का विशेष सम्बन्ध ध्यान से है अतः इस विषय की चर्चा अधिक विस्तार के साथ ध्यान प्रकरण में ही की गई है ।
मन शुद्ध, तो वचन शुद्ध वचनयोग प्रतिसंलीनता के भी तीन प्रकार बताये गये हैं१ नकुशल वचन का निरोध । २ कुशल वचन का प्रवर्तन । ३ वचन का एकत्रीभाव–अर्थात् मौन का आलंबन !
मन की तरह वचन भी एक अद्भुत शक्ति है। इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन यदि राजा है तो वाणी उसका दूत है । मन यदि ध्वजा है तो वाणी उसका दंड है । वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है
मनसा हि सर्वान् कामान् घ्यायति
वाचा हि सर्वान् कामान् वदति ' सर्वप्रथम मन से ही अभीष्ट पदार्थों का ध्यान किया जाता है, फिर वाणी उस ध्यान व संकल्प को बाहर में व्यक्त करती है। मनुष्य पहले सोचता है, चिंतन संकल्प करता है, फिर उसे वाणी द्वारा प्रकट करता है, बोलता है, इस लिए हमारे जीवन व्यवहार में मन और वाणी का पूर्वापर सम्बन्ध है।
मन एव पूर्व रूपं वागुत्तररूपम्। . मन पूर्व रूप है, वाणी उत्तर न है । मन में जो बात होगी, वही वाणी द्वारा प्रकट होगी। मन के कुएं में विचारों का जैसा पानी होगा, वाणी के
१ ऐतरेय लारप्पक १३२ २ शांच्यायन मारणाम २