Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप
३३७ है कि-खाली थैली में ही हवा भरती है, खाली-गुणहीन व्यक्ति अपने को गुणवान दिखाने के लिए अभिमान करता है, स्वयं को बड़ा प्रदर्शित करने की चेष्टा करता है। बिच्छू तिल भर जहर के कारण पूछ ऊँची रखकर . चलता है
मणिधर विष अणमाव, धारे पण नाण मगज ।
विच्छू पूछ बणाव, राखे सिर पर राजिया। किन्तु सांप भयंकर विप रखते हुए भी कभी अपने विष का प्रदर्शन नहीं करता । इसका अर्थ यही है कि अहंकारी के जीवन में सद्गुणों का विकास नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान तभी आता है जब मनुष्य किसी का विनय करके सीखता है । कहा है
न हंस के सीखा है, न रोके सीखा है
जो कुछ भी सीखा है, किसी का होके सीखा है अभिमानी किसी का हो नहीं सकता, क्योंकि वह अपने को ही सबसे वड़ा समझता है। अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका भाव है-अहंकारी का फोई ईश्वर नहीं होता, ईर्ष्यालु फा कोई पड़ौसी नहीं होता और क्रोधी का फोई अपना नहीं होता। अभिमानी राह चलते वैर-विरोध खड़ा कर लेता हैकहा है
बनालेते वैरी चलत-मग मारी सटक से, मरेंगे फुत्तों से, रिप जन पछाड़े पटफ से । तजे वो सयुक्ति विनय गुरु भक्ति चल बसी,
नमे कैसे सूखा तरुवर विचारो हृदय से। युक्ति और न्याय की बात मानता नहीं, अपनी ही बात को सत्य सिद्ध करने की चेष्टा करता है, 'मेरो मुर्गी की तीन टांग' वाली कहावत चरितार्थ करता है। गुरुजनों का विनय व सम्मान से भूल ही जाता है । मकोदे की तरह अकड़ में 'टूटे पण झुके नहीं टूट जाता है,नष्ट हो जाता है किन्तु विनय और नग्नता नहीं सीस सकता।
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