Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तंप
. इसलिए इन्द्रिय प्रतिसंलीनता की पहली साधना है-इन्द्रियों को विपयों की ओर जाने से रोके । उन इन्द्रियों को अन्य विषयों में जोड़े। जैसे आँखों को शास्त्र पढ़ने में, कानों को शिक्षा, तत्त्व ज्ञान के उपदेश सुनने में, जीभ को सद्गुणों का कीर्तन करने में, प्रभु भजन गाने में । आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह सिद्धान्त है कि मन को रोका नहीं जा सकता, किन्तु उसकी गति वदली जा सकती है । अशुभ से शुभ की ओर विषयांतर किया जा सकता है । फ्रायड जैसे काम-विज्ञानवेत्ताओं का भी यह अनुभव है कि मन को, काम शक्ति को ऊर्ध्व मुखी बनाकर उसका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है। विषयों की भूख, सेवा, स्वाध्याय, लेखन आदि कार्यों से दूसरी ओर मुड़ जाती है और उसका प्रवाह ऊर्ध्वमुखी, जीवन विकासकारी बन जाता है। साधना की प्रथम भूमिका पर यही क्रम अपनाया जा सकता है।
विपय-प्रति संलीनता को प्रथम साधना होने के बाद दूसरी साधना है--इन्द्रियों के समक्ष आये हुए प्रस्तुत विषयों में राग-द्वेप का संकल्प नहीं करना । यह साधना अभ्यास जन्य है, कुछ कठिन है। इसमें मन को विवेक एवं वैराग्य से स्थिर रखना पड़ता है। जैसे गीत आदि मधुर शब्द कानों में आ रहे हों तो साधक सोचता है
सध्वं विलंबियं गोयं-ये सब गीत विलाप मात्र हैं, सव्वं नट्टविडम्बनाये सब नाटक, सिनेमा केवल विडम्बना मात्र है। इसीप्रकार विषयों के दुष्परिणामों की भी विचारणा की जाती है-सव्वे फामा दुहावहा–सभी विपय, काम दुखदायी हैं !
वीतरागता के तीन सोपान विषयों में मध्यस्थता रखने के तीन साधन है-इन्हें वीतरागता के तीन सोपान भी कह सकते हैं
१ विषयों की क्षणभंगुरता का ज्ञान .२ विषयों के दुष्परिणामों का चितन ३ आत्म-स्वरूप में रमण की वृत्ति संसार के समस्त विपय-भोग्य पदार्थ क्षणभंगुर है, अभी जो सुन्दरी