Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप
३२३ को रागात्मक माना है, क्रोध एवं अहंकार को द्वेषात्मक !१ इस प्रकार राग और द्वेष मिलकर सम्पूर्ण कषाय कहलाते हैं । तो यह कषाय ही कर्म रूप वृक्ष की जड़ है, बीज है । कपाय ही जन्म मरण की जड़ को सींचता है--सिंचंति मूलाई पुणम्भवस्स ।२ कषाय जीवन में सद्गुणरूपी, विवेकरूपी लता को जला डालने वाली अग्नि है-फसाया अग्गिणो वुत्ता' मनुष्य को उन्मत्त बनाने वाली मदिरा है, मादकता है, प्राचीन आचार्यों की भाषा में-पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः४- पिशाच की तरह, भूत-प्रेत की तरह ये कपाय प्राणी को बार-बार छलते रहते हैं,भ्रम में डालते हैं, विवेक भ्रष्ट बनाते हैं। जैन धर्म के महान तत्त्वज्ञानी भाष्यकार आचार्य जिनभद्र गणी ने तो कपायों के कटु परिणाम बताते हुए यहां तक कह दिया है
जं अज्जियं चरित्त देसुण्णए वि पुव्व कोडीए ।
तं पि फसायमेत्तो नासेइ नरो मुहुत्तेणं।" देशोनकोटि पूर्व तक कठोर साधना के द्वारा जो शुद्ध चारित्र पाला है, उसका महान फल अन्तर्मुहु त भर के कपाय से नष्ट हो जाता है । जैसे हजार मन दूध को खटाई की एक बूंद फाड़ डालती है, लाखों मन भोजन को जहर का एक कण भी विपाक्त बना डालता है, वैसे ही जीवन के अनन्त-अनन्त सद्गुणों को कपाय-नष्ट भ्रष्ट कर डालता है ।
कपाय एक प्रकार का तीन विप है, इसके संस्पर्श से, हलके से आसेवन से भी आत्मा पतित हो जाता है, अन्तर वृत्तियां कलुपित हो जाती हैं, इसलिए शास्त्र में बताया है कि आत्म गुणों का विकास चाहने वाले साधक को सर्वप्रथम कपाय को नष्ट करना चाहिए। कपाय को जीतने वाला सब को जीत लेता है
१ प्रज्ञापना पद २३॥१--- दोसे दुविहे-कोहे य माणे य ।
रागे दुविहे~-माया य लोभे य । २ दशकालिक ८१४० ३ उत्तराध्ययन २३१५३ ४ योग शास्त्र ५ निशोषमाप्य २७६३