Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कायक्लेश तप
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नेती-धौति आदि पट्कर्मों के द्वारा शरीर का शोधन किया जाता है, फिर आसन साधना से शरीर को सुदृढ़ बनाना, मुद्राओं द्वारा स्थिरता का अभ्यास करना, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिय निग्रह करना प्राणायाम द्वारा श्वास प्रक्रिया पर अधिकार कर शरीर को हलका बनाना, इसके पश्चात् ध्यान और समाधि का अभ्यास किया जाता है । जैन योग साधना में इतना लम्बा कम नहीं है । वहां पर आसन भी बहुत कम बताये हैं और जो हैं वह सिर्फ साधना के उपयोग में आने वाले। .
आसनों के भेद योग दर्शनकार आचार्य पंतजलि ने आसन की व्याख्या करते हुए कहा है-स्थिरसुखमासनम् जिसमें सुखपूर्वक शरीर की स्थिरता रह सके वह आसन है । यह योग का तीसरा अंग है, तथा हठयोग का दूसरा । वैदिक ग्रन्थों में बताया है विश्व में जितनी जीवयोनियां हैं उतने ही प्रकार के आसन हैं । इस दृष्टि से आसनों की संख्या भी ८४ लाख हो जाती है। संक्षेप में वे ८४ हैं । उनमें भी ३२ आसन पुरुप के लिए उपयोगी बताये हैं । ३२ में भी साधना की दृष्टि से दो आसन विशेष उपयोगी है—पद्मासन और सिद्धासन ।"
जैन आचार्यों ने यद्यपि आसन को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया है फिर भी ध्यान में स्थिरता एवं एकाग्रता लाने के लिए उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया है । वहां बासन के दो भेद किये हैं...
१ शरीरासन
२ ध्यानातन शरीरासन वे हैं-जो शरीर को सुदृढ़ व स्थिर बनाने में अधिक लाभप्रद हैं। ऐसे आसनों की साधना में कोई महत्व नहीं है। दूसरे प्रकार के थासन है-ध्यानासन ! जिन आसनों में ध्यान किया जा सके। ये आसन
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१ आसनानि च तावन्ति यावन्ति जीव जातयः-ध्यानबिन्दूपनिषद् ४१ २ ध्यान और मनोवल पृ० ४३८ (डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री) ३ जैन परम्परा में योग (मुनि नथमल जी)