Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप __परिकर्म व विभूपा वर्जन का यह अर्थनहीं है कि साधु शरीर की शुद्धि . भी न रखें। शरीर व वस्त्रों को साफ स्वच्छ तथा शुद्ध रखना एक अलग बात है और उनकी विभूषा करना अलग बात है। शुद्धि व स्य... च्छता के लिए तो यहां तक बताया है कि साधु मल, मूत्र, खेल, खंखार व .. पसीने के गीले हाथ भी खाने पीने की वस्तु को न लगाए। यह तो एक प्रकार की स्वच्छता है। स्वच्छता, सफाई रखने वाला अपने आप बहुत से रोगों से बच जाता है। लोगों में घृणा जुगुप्सा पैदा हो ऐसा वस्त्र,पात्र,शरीर आदि रखना साधु के लिए निषेध हैं । किन्तु साधु का शरीर व वस्त्र पाय के प्रति इतना ही लक्ष्य रहता है कि वे स्वच्छ रहे, गंदे न रहे,न कि सुन्दर दीखे, लोगों को आकर्षक लगे। शरीर को सुन्दर व आकर्षक बनाने की इच्छा ही ।। वास्तव में विभूषा है, गाय परिकर्म है-और इन दोनों दोपों से बचना कायक्लेश तप है।
उपसंहार यह तप साधु को लक्ष्य करके भले ही बताये गये हैं, किन्तु गृहस्य भी इनकी साधना कर सकता है। आसन आदि के द्वारा ध्यान करना, ग्यारह . उपासक प्रतिमा धारण करना, शरीर की, शिष्यों की ममता कम करना, स्नान, विलेपन अंगराग आदि की मर्यादा करना जैसा कि श्रावक के चौदह नियमों में भी बताया गया है, यह सव साधना करने पर गृहस्य भी कायस्लेश तप की आराधना कर सकता है। वास्तव में कायक्लेश तप का उद्देश्य एर. हो है-शरीर के प्रति ममत्व कम करना, शरीर का मोह छोड़ना-इस उद्देश्य की पूर्ति में जो भी साधन काम में आये ये सभी तप हो सकते हैं।