Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप .. की ओर उन्मुख करना विपय कपाय की वृत्तियों से हटाकर तप संयम की ओर बढ़ाना आत्मा को अन्तर्मुखी बनाना है। आत्मा की अन्तर्मुखता का . यह प्रयत्न ही तप की भापा में 'प्रतिसंलीनता' कहा जाता है।
स्व-लीनता, संलोनता प्रतिसंलीनता-बाह्य तप का अन्तिम तथा छठा भेद है। इसका अर्थ है-आत्मा के प्रति लीनता। पर-भाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन । बनाने की प्रक्रिया ही-वास्तव में प्रति संलीनता है। इसलिए संलीनता को .. स्व-लीनता-अपने आप में लीनता भी कह सकते हैं । .
योगीराज आनन्दघन जी एकबार किसी सुरम्य पर्वत कन्दरा में ध्यान । कर रहे थे । कुछ भक्त जन उनके दर्शन करने के लिए उस जंगल में पहुंचे। जंगल का वातावरण बड़ा ही मनोहर लग रहा था, सुन्दर रम्य वृक्षावलियां चारों तर्फ हरियाली, विविध पक्षियों का मधुर कूजन और एक तर्फ शांत हरी भरी पर्वतमाला ! उससे कल-कल कर झरते-निझर! दूसरी ओर लहरों से मवेलियां करती हुई नदी ! इस मन मोहक वातावरण को देखकर भक्तजन मंत्र मुग्ध से होगए, कुछ देर वे वही शांत वातावरण का आनन्द लेते रहे । फिर पर्वत की गुफा में पहुंचे, जहां योगीराज ध्यान मग्न थे। योगी राज का ध्यान पूरा हुआ । भक्तों ने प्रार्थना की-महागज ! भीतर अंधकार में कहां बैठे हैं ? बाहर चलिए और देखिए कितना सुहावना वातावरण है ? .
योगीराज स्मित-हास्य के साथ कुछ गम्भीर होकर बोले --भाई ! बाहर ही देखना या तो यहां क्यों आये ?
भत्तजन योगीराज की गम्भीर मुनमुद्रा को एक टक देखने लगे, कुछ · समझे नहीं, योगीराज क्या कह रहे हैं । योगीगज ने आगे कहा-~~-बाहर देखते-देखते तो अनन्त जीवन बीत गये ! कुछ कल्याण नहीं हुआ। अब तो . बाहर दृष्टि हटाकर भीतर की ओर देखो, भीतर में बाहर से भी अधिर गौन्दर्य, अधिक शांति और अधिक मन मोहकाना भरी पड़ी है ! जरा मुह गार नीतर देतो तोही !"