Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रतिसंलीनता तप .
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भोगवादी बन जाता है । स्वादिष्ट वस्तुएं खाता है, आलीशान विल्डिगों में डनलप के गद्दों पर पर सोता है, मोटरों में दौड़ता है और कहता है-"वस यह तो सब अनासक्त भाव से परमार्थ के लिए कर रहा हूँ।" सचमुच में अनासक्ति के साथ यह वंचना है, प्रवंचना है । यदि आसक्ति नहीं है तो शरीर को आराम देने वाली वस्तुओं की खोज क्यों करते हो ? उन साधनों का उपयोग क्यों करते हो ? सुख के समस्त साधनों का उपयोग करना और अनासक्ति का ढोंग करना। प्रभु को समर्पण करके परमार्थ के लिए भोगनायह सब नाटकीय शब्दावली है, जो भोगवादी प्रवृत्ति से पैदा हुई है। इसलिए जैन धर्म में प्रतिसंलीनता के दो अर्थ किये हैं—पहला यह है कि इन्द्रियों को संयत रखना । विषयों की और दौड़ाना नहीं।
पहले विपयों का उपयोग करो, फिर अनासक्ति का ढोंग रचो इससे तो अच्छा है,पहले उनका उपयोग करो ही मत ! वस्त्र को पानी में डालकर सुखाने की बात करने से अच्छा है,गीला करो ही मत ! क्योंकि इन्द्रियां इतनी बलवान हैं, इतनी सूक्ष्म रस ग्राहिणी हैं कि एक बार जिस विषय का आनंद ले लेती है, उस विषय से जल्दी से हटती नहीं, विषय सामने से हट गया फिर भी उसकी स्मृति मन से नहीं निकलती । आचार्यों ने कहा है
इदिय धुत्ताण अहो, तिल तुस मित्तं पि देसु मा पसरं ।
अह दिनो तो नीओ जत्थ खणो वरिस फोडिसमो !' इन्द्रिय (विषय) रूपी धूर्तों को तिल भर भी प्रश्रय मत दो, क्योंकि तिल भर प्रश्रय पाकर वे मेरु जितनी जगह बना लेते हैं और क्षण भर का अवकाश पाकर क्रोड वर्ष तक पल्ला नहीं छोड़ते । इसलिए प्रारंभ में इनको प्रश्रय दो ही मत ! .
संग त्यागो! ___ एक किसान का बालक पहाड़ की तलहटी में भेड़ें चरा रहा था, प्रातः काल का समय था। रात को बहुत वर्फ पड़ी थी, चारों ओर वर्फ जम रही
१ उपदेशप्रासाद भाग ५।१४२