Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
सात ऐषणाएं (पिण्डपणा) पूर्व बताया जा चुका है कि दोपरहित, शुद्ध प्रासुक अन्न जल ग्रहण करने को एपणा कहते हैं। एपणा के तीन भेदों में एक भेद है पिण्डग्रणा । इसके भी दो भेद बताये गये हैं-पिण्ड पणा एवं पानपणा । आहार ग्रहण करने की विधि को पिण्डेपणा कहते हैं और पानी ग्रहण करने को पानपणा । पिण्डेपणा के सात भेद ये हैं१ असंसट्ठा- देने वाले भोजन से बिना सने हुए हाथ तथा पात्र में
आहार ग्रहण करना। २ संसट्ठा-सने हुए हाथ तथा पात्र से भोजन देना। .. ३ उद्धड़ा-वटलोई से थाली आदि में गृहस्थ ने जो भोजन निकालकर
रखा हो, वह लेना। ४ अप्पलेवा-जिनमें चिकनाई का लेप न लगा हो, इस प्रकार का
आहार-जैसे भुने हुए चने आदि आहार लेना। ५. अवग्गहीया-भोजनकाल के समय भोजनकर्ता ने थाली में जो भोजन
परोस रसा हो, किन्तु अभी तक उस भोजन में से कुछ
खाना शुरू न किया हो, वह भोजन लेना। . ६ पग्गहीआ-थाली में परोस कर रखा हो, और भोजनकर्ता ने एक
___ ग्रास उस में से खा लिया हो, किन्तु दूसरा ग्रास न लिया
हो, इस प्रकार झूठा न हुमा हो, ऐसा आहार लेना ।। ७ जज्जितधम्मा--जो आहार अधिक होने से, अथवा साने, योगगन
होने से फेंकने के लिए रखा हो, फेला जा रहा हो,
वैसा फैलाने योग्य आहार लेना। इम एपणा विधियों से मिलानर्या में विशेष संगोन होता है, पटोला आतीमायही निर्दोपता भी। लाचारांग गुर मे विटेपणा अध्ययन में रामा स्मानांकन (6) में पिटीपणा मा गाफी विस्तार के साथ वर्णन मिलता है।
भिटामी निदोगवा माम-माय निशा को ठोर पर्श अनाने का भी इनमें भाग AT | गति सेपल्या ग यस्तु मादिगो दृष्टिगे और it free
अन्य दो और नीम राई में गिनाये गये है।
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