Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप है, वे तो हैं ही, किन्तु उनके साथ अन्य और कठोर नियम आदि का बंधन . लेकर मन को अधिकाधिक निग्रहीत करें। वृत्ति को अधिक से अधिक .. संयत बनाये !
शुदंपणा का महत्व उपयुक्त गोचरी के भेद, एपणा के भेद, एवं अभिग्रह के भेदों के द्वारा भिक्षाचरी करना, शुद्ध ऐपणिक निर्दोष आहार प्राप्त करना और मुधाजीयो होकर रहना-भिक्षाचरी तप है। इस प्रकार की भिक्षाचरी करने वाला भिक्षक भिक्षाचरी तप की आराधना करता है । और ऐसे भिक्षक को आहार पानी आदि का दान करना भी महान् पुण्य का कारण है। भगवती मूय में शुद्ध दान का महत्व बताते हुए कहा गया है
मात्मा तीन कारणों से दीर्घायुष्य (सुखमय दीर्घजीवन) प्राप्त करता है-- १ अहिंसा की साधना से २ सत्य भाषण से ३ श्रमण-ब्राह्मण को शुद्ध-निदोंप आहार पानी देने से
दान के शुभ परिणामों की एक झलक इस उद्धरण में देसी जा सकती है !
यह दान का फल उसे ही प्राप्त होता है जो उक्त रीति से भिशापरी पारता है । भिक्षाचरी की यह विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विधि जैन श्रमणों के .. जीवन का मुख्य नाधार है। यदि उक्त विधि से आहार न मिले तो अमा:. उपवास करना, तप कर शरीर को त्याग देना श्रेष्ठ समझता है, जिन अविधि से दोप लगाकर भिक्षातरी नहीं करेगा । जैन श्रमणों के सामने अब जब भी ऐसे प्रसंग आये तो ये भूये रह गये,किन्तु पनगणिया माहार ग्रहण कर अपनी भिक्षानरी यो दूपित बनाना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ । निनीय भार । में प्रगंग मनाया गया है, कि जय मध्यान में भयंकर दुकान पर शो जन गणों को मुरबार मिलना अत्यंत माठिन हो गया । राजा गंप्रति में
मा ५-६
* भगवती गूज मानक ५ २ शिमोगमा १६