Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मापरित्यागर
आचार्य के कुछ शिष्य जो बो त्यागी च आमाझे थे, उन्होंने आगार्य विहार करने की प्रार्थना की। रमलोलुप आचार्य ने कहा ---"कहीं भी जाओ ! साधु ना धर्म तो उपदेश देना है, यहां बैठे भी वही काम करते पिर कान सा दोष है ?" टालमटोल का उत्तर मुनगान गुछ साधु आनार्य को छोडकर अन्यत्र विहार कर गये। गिन्तु आचार्य मंगु ने गलौनुपता नहीं हटी। में सरल स्वादिष्ट भोजन के लोन में पाकर मारनी साधु मर्यादा भून गये। गब दूध, दही, मी प्रपीत आहार जाने लगे। इस आग ने कारण ये गाना मे प्रष्ट हो गरे । आगुप्तपूर्ण पार उनी नगर में एक नया बन गये । जब मान में उन्होंने अपना पूर्व जन्म देता तो उन, बहा गातार होने लगा--- गोगा ! मैं तो इतना बड़ा बानायं पा गदि गर्भावा में कहा तो गोमानिका इन्द्र बनता ! अब पक्ष योनि में आ गिग । नियार
ािर तो जो गति मोह मिना मेरे कारण अब आप साधु मला हो कर सपना जन्म दिना। इसलिए मा पर जा भी जर को साथ निगाना सो प्रतिमा में प्रविष्ट होकर नंगे जो बाहर
निका । माधान ग उमोर जाते । एक दिन पग मामी मागे "म मोगी? और निमगिया जोग मानिकारक ?'
महान Tar format गुम लोगों का नुकसान मंत्र ! में जाटो मिनि में आयोनिमा
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