Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन-धर्म में वर को तपाना चाहते हैं किन्तु घी का आधार पात्र है, इसलिए घी को तपाने के साथ ही पान स्वयं तपता है। कोई आपसे पूछे-भाई ! बाप का कर रहे हैं ? तो आप झटसे कहेंगे, घी तपा रहा हूं। न कि पान तपा रहा हूँ ऐसा कहेंगे ? पाय को तगाना लक्ष्य नहीं है, वह तो स्वयं तप जाता । उगी प्रकार आत्मा से विचारों को दूर करने के लिए, इन्द्रिय निराह, आसन, उप.. वाना आदि के द्वारा तपाना तो बात्मा को ही है, किन्तु न कि आत्मा पा आधार नवीर है-इसलिए आत्मा जब तपाचरण करता है तो शरीर गो कष्ट होता है, शरीर अवश्य ही तप्त होता है, किन्तु शरीर की उस वेदना में .. गायक को वेदना को अनुभूति नहीं होती। नप के कप्ट को साधक कष्ट रूप में अनुभव नहीं करता, जैसे माता अपने बालक की सेवा करती हुई भी उन सेवा में कष्ट या पीला का अनुभव नहीं करती, उसी प्रकार तप में शरीर को पीड़ा होते हुए भी साधक पीड़ा की अनुभूति नहीं करता, क्योंकि उसका लक्ष्य आत्मानंद को प्राप्ति का है।
कायपलेश को दार्शनिक पृष्ठभूमि काया को कष्ट देना, देह का दमन करना, इन्द्रियों का निप्रद मारना --- इम पदावली गे पीछे एक माध्यामिमा निन्तन है, भारतीय अध्यात्म दमन नी पप्ठभूमि है।
मंगार में प्रारम्भ से ही दो प्रकार में दर्शन गले आये हैं .. एक अहवादी दर्शन, दूसरा आत्मवादी दर्शन ! जयादी दगंग गरीर को ही सब कुछ माता है। गरीर में किन्न मारमा गाम मे सत्त्य की पल्पना ही उस दिनार नहीं भाती। हर परलोग, पूर्वजन्म, पुनम तो यहां से मानेगा ! राम! अगिर गुम
एतापानेष मोकोयं पायानिप्रियगोपरः । भरें ! गग, पर पाय गद यानि माय ताः।' wirinाता है, या गा गंगार है ।