Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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रस-यग्ल्यिाग तप
अरे मगं ! पराया अन्न गाने को मिला है तो साले ! मरीर पर जरा भी दमा गत पर ! पोंकि सारीर तो फिर-फिर से मिल जाता है, किन्तु पराया बन्न बार-बार नहीं मिलता।" यह नहीं सोच पाता कि अन्न तो पराया। किन्तु पेट तो पराकानही तो आसक्ति कम पेटको बोस-ठौर पर पा लेता है, और फिर रोगी होता है, बाट पाता है, अनेक प्रकार की बीमारियों में घिर जाता है और मात में हाग-बार वारसा हुमा मरता है।
दुरीका में एक हजार वर्ष तल गंयम पाला, शिन्तु माविर में रसलोनुमा मसारण मंबर से सटा और अत्यधिक म स्वादिष्ट भोजन गारो भोला महारोगों में आपांत हो सरकार में गया !
उत्तरायन सुर (७) में बताया कि मनुष्य पोटे से स्वाद के कारण अपने जीवन में सीनियाद कर लेता है। स्वाद और सभासद सामान को भी नहीं मरता, अपच्य भोजन करता
फिर रोग हो जाते। और वाशि में गोगा महार जागर गैल ताप्रामीन 3 महाम---
अपरथं अंचगं भोपा रापा र तु हाए । Raमामा में जो भगना मा (जीवन मामा)
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