Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप के ही हेतु है-इस कारण इन्हें विगई (विकृति-विगति) कहा जाता है।
. . विगय कितनी? . प्राचीन ग्रंथों में विगय के दो रूप मिलते हैं-भक्ष्य विगय अभक्ष्य विगय । विगय-विकृति पैदा करने वाली अवश्य है, किंतु फिर भी शरीर को . समयं व कष्ट सहिष्णु बनाये रखने के लिए साधक कभी-कभी उनका उपयोग भी कर सकता है। जो विगय खाने के उपयोग में ली जा सकती हैं उन्हें मध्य विगय कहा गया है।
'भक्ष्य विगय छः हैं-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और अवगाहिम अर्थात् परवान्न-मिठाई आदि कढ़ाई में पकी हुई तली हुई, बस्तुएँ।
अभक्ष्य विगय चार हैं, जिन्हें महा विगय नी कहा जाता है-मद्य, मांस मधु और नवनीन । इनमें मद्य-मांस तो सर्वथा ही त्याज्य है, माधक किमी भी स्थिति में इनका सेवन नहीं कर सकता। किंतु मधु और मपसन विशेष स्थिति में लिये जा सकते हैं-ऐसा विधान है।
रस शिजय ही सबसे कठिन पांज इन्द्रियों में सनेन्द्रिय' दूसरी इन्द्रिय है। इसका काम है-ग का, स्वाद का अनुभव करना । जब भाषा पर्याप्ति मिल जाती है तो सहन्द्रिय बोलने का भी कार्य करती है स प्रकार अन्य इन्द्रियों से एक-एक गाय होता है, किन्तु गनेन्द्रिय में दो काम होते हैं....रस लेना और बोलना । जीवन में दो ही महत्वपूर्ण यस्ता हैं- भोजन और भाषण । साना और . बोलना- ये दोनों कार्य सन्द्रिय के अधीन है। मष्टि भोजन-मार नही स्वामिनी राना इन्दिन है। पांचों इन्द्रियों में इसका प्रमुरा गया है। अन्य दिलों में गिर गो जीतना आसान है, किन्तु मन्तिम पिठी को जीतना माहिम लिए गहा गया है- 'स जिन जिने से।" जिमने बन्दियो गीनिया उसने गंगार को मन विभागों जीना
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१ नामद गतिमाद ना गिरी, Frent
नामाचार पति ( मार) मरनी हा निरः। नाशि