Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैनधर्म में तप
निस्वार्थ भाव से देने वाला और निष्काम भाव से लेने वाला — दोनों ही दाता ' और पात्र संसार में दुर्लभ है। ऐसे मुधादायी और मुधाजीवी दोनों हो सद्गति में जाते हैं ।
भिक्षाचरी के आठ भेद
भिक्षाचरी का समय, विधि और महत्त्व बताने के बाद अब हम आगम में बताये गये भिक्षाचरी के विविध भेदों पर विचार करेंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में भिक्षाचरी और ऊनोदरी तप के भेदों में बहुत साम्य दिखाया है, भिक्षाचरी के विविध भेदों को ऊनोदरी तप में भी ले लिया गया है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि भिक्षावरी का मूल उद्देश्य रमना पर विजय प्राप्त करना हे । मूसा रूखा जैसा भी भोजन मिले अरसं विरसं वावि-जैसा अरस-नीरस आहार प्राप्त हो उससे ही उदर निर्वाह करके अपनी संयम यात्रा चलाते जाना यह भिक्षान्तरी का उद्देश्य है । इसमें पेट भर कर भोजन प्राप्त हो भी सकता है और नहीं भी ! मन इच्छित भोजन कभी मिले और कभी न भी मिले । कभी-कभी भिक्षु स्वयं विविध अभिग्रह, संकल्प आदि करके अपने मन को अधिक निग्रहीत करने का प्रयत्न करता है । उस निग्रह में कनोदरी तो अपने आप होती ही है, इस कारण उन अभिग्रह आदि को जनोद तप में भी गिना गया है जिनका वर्णन कनोदरी तप के भेद में किया जा चुका है । और वह ऊनोदरी भिक्षावरी के माध्यम से होती है इस कारण भगवती सूत्र ( २५१७ ) और उबवाई सूत्र (तपाधिकार) में उसे भिक्षानरी के भेदों में गिना है। इस गणना में कोई विरोध नहीं, किन्तु भावना का साम्य ही अधिक है । बंब यहां दोनों सन्दर्भों पर हम विचार करते हैं। उत्तराध्ययन मैं यहा है.
(पृष्ठ २५३ का शेप ).
की थी, पर अब आप से रहा नहीं गया। आप अपनी
तो
किसी से
हे ! अंत: अब मैं आपकी सेवा नहीं करता। सेवा लेकर उसकी सेवा करने का फल बहुत ही होता है । अत: मैं तो सेवा करना चाहता था ।