Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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भिक्षाचरी तप
२५६ मुघादायी' अर्थात् किसी प्रकार की प्रतिफल की कामना के बिना १ मुधादायी का एक अर्थ यह भी किया गया है कि दाता मन में किसी
प्रकार के प्रतिफल की कामना नहीं रसे कि मैं इसे भिक्षा देता हूं तो मुझे अमुक फल की प्राप्ति हो अथवा मेरा यह कार्य भिक्षा लेने वाला सम्पन्न कर दें । इस सम्बन्ध में टीका में एक काया है
ऐक सन्यासी था । एक बार वह एक भक्त (भागवत) के घर पर पहुंचा और बोला . मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास काल व्यतीत करना चाहता हूं, क्या तुम मेरे निर्वाह का भार उठा सकोगे ?
भागवत ने कहा--आप मेरे यहां चातुर्मान व्यतीत करेंगे इसमें मुझे खुशी है, किन्तु मेरी एक गतं है, यदि मेरी शर्त आपको स्वीकार हो तो आप प्रसन्नतापूर्वक रहिए।
सन्यासी ने कहा-शतं क्या है ? भागवत ने कहा- मैं यथा माय आपकी सेवा करूंगा, लेकिन बदले में आप मेरा कोई भी कार्य नहीं करेंगे । क्योंकि प्रत्युपकार की भावना रखने से मेरी सेवामा पाल क्षीण हो जायगा।
मन्यासी ने शतं स्वीकार कर ली। वह उसके घर रहार गया। भागयत भी भोजन आदि से उसने संया पारने लगा। एक दिन बात म नगर भागवत के घर नार आये। चोरों नेहा और मुछ नहीं लगा तो वे भागवत का पोड़ा गुराकर ही ले गई। जाते-
जात्रा होने लगा तो लोगों की भय लगा उनहनि घोड़ा नदी किनारमा बांध दिया और आगे चल पडे।।
अपने नियमानुसार प्रात: सन्यासी नदी किनारम्नान करने गया। पहा भागामापा गानोलो गर देने तुरन माग गरौटकर आया। अपनी प्रतिमा बनाई। ममामा बाल हीने सभागार में कहा- नो विगारे ना या
रिना सामोरा सपने मार
गट २५४ पर