Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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भिक्षाचरी तप
२५१ साधु तो स्पष्ट कहता है-"मुझे भिक्षा देने वाला किसी लालचवश नहीं, कामनावश नहीं, किंतु निस्वार्थभाव से त्यागी समझकर देवें ।" इस विषय को स्पष्ट करने के लिए टीकाकार आचार्य ने एक बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त दिया है।
मुधाजीवी एक राजा था । एक दिन उसके मन में धर्म के सम्बन्ध में जिनासा जगी कि कौन सा धर्म श्रेष्ठ है ? उसने अपने मंत्री से पूछा--मंत्रिवर ! सब धर्मों में श्रेष्ठ कौन सा धर्म है ?
तटस्वष्टा मंत्री ने निवेदन किया--"महाराज ! वैसे तो प्रत्येक धर्म गुरु अपने-अपने धर्म. को श्रेष्ठ और मोक्ष का साधन बताते हैं, किन्तु हमें इससी परीक्षा करके देखना चाहिए । धर्म को पहचान गुरु होती है, जो गुरु निस्पृह होगा, दुनियादारी में जिनका कुछ लेना-देना नहीं होगा यही गुरु उत्तम होगा, और उसका बताया हुआ गर्म सना तमा श्रेष्ठ होगा।"
मंत्रो फा .मन राजा ने गर्न उनः गया। उसने धर्म गुगओं को बुलाने के लिए नगर में घोषणा कारवाई ---"रामा सभी धर्म गुग्नी मो मोदय दान देना चाहता है, और उनगे पमं सुनना चाहता है। अन: आज भी धर्मगुम गजलमा में उपमित हो।"
रामाही घोषणा सुनकर बहुत से मंगवामा में पहुँचे । राजा में शाम उन गुटों में पूजा-~~~orm मारमा बौन नि ।
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