Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
मिक्षावरी के इन ४२ दोपों का वर्णन मूल आगमों में एक स्थान पर नहीं मिलता है | कुछ दीपों का वर्णन आचारांग, कुछ का दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, तथा प्रश्नव्याकरण एवं भगवती सूत्र आदि में अलग-अलग आता है | आगमोत्तरकालीन ग्रंथों में जैसे पिंड नियुक्ति, प्रवचन सारोद्वार, आवश्यक वृत्ति आदि में एक स्थान पर भी प्राप्त होता हैं ।
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परिभोगपणा (ग्रासपणा) के संयोजना, अप्रमाण, अंगार आदि पांच दोप बताये गये हैं, उनका सम्बन्ध भिक्षाचरी से उतना नहीं है जितना कि आहार विधि ( रसवृत्ति) से हैं, अतः हमने उनका वर्णन रस परित्याग के अन्तगतं यथाप्रसंग कर दिया है ।
इसी प्रकार भगवती सूत्र (७११ ) में क्षेत्राविक्रांत, कालातिकांत आदि भिक्षा के चार दोप बताये हैं । उनका सम्बन्ध ऊनोदरी तप से बैठता है । अतः उसी प्रसंग में चारों का वर्णन किया गया है ।
श्रमण सूत्र के गोचरचर्या सूत्र में भी गोचरी के अनेक दोष और विधियों का सूक्ष्मवर्णन किया गया है । विस्तार के लिए पाठक (श्रमण सूत्र : विवेचन उपाध्याय अमरमुनि) देख सकते हैं ।
इस तरह उद्गम, उत्पादन और एपणा के दोषों को कुल संख्या बयालीस होती है । ये बयालीस दोप 'भिक्षाचरी' के हैं। इन दीपों को टालकर विवेक पूर्वक भिक्षा ग्रहण करना - शिक्षाचरी है ।
पाठक कल्पना कर सकते हैं कि जैन मुनि की भिक्षा के सम्बन्ध में कितने नियमोपनियम बनाये गये हैं, भिक्षा की विधि कितनी कठोर और विवेकपूर्ण है। भिक्षा विधि के सम्बन्ध में इतना गहरा विवेचन अन्य किसी श्री भिक्षुक परम्परा में नहीं मिलेगा । निक्षा लेना तो वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में भी विहित है, किन्तु वहां भिक्षा के नियम बहुत मस्त है। यहां पर इस प्रकार के ४२ दोषों को, नवकोटि विशुद्धि को कोई भी नहीं है । यस भिक्षुक ने याचना को, दाना ने जैसा भी, जहां से भी लाकर दे दिया, भिक्षुक ने ग्रहण कर लिया। इस प्रकार की भिक्षा बहुत ही आसान है, इसी कारण हम भिक्षा को 'तप' कहा भी
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है।