Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
२४४
जैन धर्म में
तप
दोन्हं तु भूजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छेज्जा छंद से पडिलेहए ।'
-दो स्वामी या भोक्ता हो, वहां एक मुनि को भिक्षा के लिए निमंत्रित करे, तब मुनि दूसरे के अभिप्राय को भी देखें, यदि उसे देना अप्रिय लगता हो तो मुनि उस भिक्षा को ग्रहण न करे ।
मिक्षा के अन्य नियम
मुनि को भिक्षा के सम्बन्ध में जैनसूत्रों में स्थान-स्थान पर बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। आचारांग (२१) प्रश्नव्याकरण ( संवर द्वार १.१५ ) भगवती मूत्र ( ७११) उत्तराध्ययन (२६) दशवेकालिक (५) तथा निशीथ आदि सूत्रों में भिक्षाचरी के अनेक विधि-निषेधों का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन प्राप्त होता है । आचारांग दूसरे श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन तो विशेष रूप से भिक्षा विधि के वर्णन से ही भरे हैं । इस कारण इनका नाम भी 'पिंडेपणा अध्ययन' प्रसिद्ध हो गया ।
वृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देशक में बताया है कि- भिक्षा के लिए जाने से पहले कामोत्सर्ग करना चाहिए । इस कायोत्सर्ग-ध्यान में यह विचार करना चाहिए कि "आज मैंने कौनसा आयम्बिल, नोवी आदि व्रत से रसा है, मुझे कितना आहार लेना है, कैसा आहार करने का मेरा नियम है ?" इस प्रकार का चिन्तन साधक को भिक्षा के लिए जाने से पहले सावधान कर देता है कि आज मेरा अमुक संकल्प है, अतः अमुक प्रकार का रंग, विग आदि नहीं लूंगा । और सादा भोजन भी अमुक मर्यादा के अनुसार होगा। दवैकलिक में बताया गया है, कि मुनि आहार के लिए जाये तो
के घर में प्रवेश करके वह शुद्ध आहार की गवेषणा करें, सर्वप्रथम यह यह जानने का प्रयत्न करे कि यह बहार शुद्ध और निर्दोष है
१ मलिक ३७
०५४।११२७
(स) --सोना विजयही ११५६