Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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- जैन धर्म में तप ... पर जल की भांति जैसे सरोवर में उन्मज्जन-निमज्जन की क्रियाएं होती हैं .. वैसी ऊपर नीचे आने-जाने की क्रियाएं करना प्राकाम्य लब्धि है। ...
ईशित्व लब्धि-- इस लब्धि के प्रभाव से तपस्वी तीर्थकरों जैसी तथा . इन्द्र जैसी ऋद्धि की विकुर्वणा कर सकता है । यद्यपि यह विकुर्वणा कुछ क्षण ही टिक पाती है, पर लोगों को चमत्कार दिखाने के लिए ऐसी शक्ति का प्रयोग तपस्वी करते हैं।
वशित्व लब्धि-दूसरों को अपने अनुकूल या वश में करने के लिये इस लब्धि का प्रयोग किया जाता है । वशीकरण के लिए यंत्र मंत्र तंत्र आदि । भी अनेक प्रचलित हैं, किन्तु वे सब भौतिक वस्तुओं पर आधारित हैं जबकि यह लब्धि आत्म-शक्तिजन्य है ।
कुछ योगी पर्वत मालाओं के बीच से, शिलाखंडों के भीतर से विना रुकावट के ही निकल जाते हैं और शिलाखंड में कहीं कोई छेद भी नहीं दिखाई देता । इस लब्धि को अप्रतिघातित्व लब्धि कहा जाता है । शरीर को अदृश्य करने की लब्धि 'अन्तर्धान लब्धि है, तथा एक साथ अनेक प्रकार के रूप बनाना, मनचाहे रूप बना लेना कामरूपित्व लब्धि है।
लब्धियों का विस्तार के साथ वर्णन इस लिए किया है कि आत्मा की .. अनन्त शक्तियों का किस-किस रूप में विकास होता है,और क्या-क्या चमत्कार पैदा होते हैं- इसका अनुमान पाठकों को लग सके । यह भी नहीं भूल जाना चाहिए कि तप का सीधा फल लब्धि नहीं है । तप का फल तो है कर्मनिर्जरा, आत्मा का शुद्ध स्वरूप में आना | आत्मविकास होने पर आत्मा की शक्तियां भी स्वतः जाग्रत होती हैं। वे शक्तियां ही एक प्रकार की लब्धि है । इस तरह . तप का मूल लाभ है-कर्म निर्जरा ! और उत्तर लाभ है --लब्धि ! शक्ति !