Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बनशा तप
२०३ रिक चेष्टानों को नियमित कर नया है--कि मैं अगु मर्यादा से अधिक क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊंगा । इतने स्थान में ही रहंगा, तथा अपनी सेवा स्वयं करूंगा, रिमो अन्य को सेवा, सहयोग नहीं नगास प्रकार की प्रतिमा करते रहना-गिनी मरण माहलाता है।
उक्त दोनों तप सविनार तथा सपनिमम तप है, इनमें भरीर आदि को नेष्टाए, हिलना-दुलना मुला रहता है, तथा गरीर की सेवा ट्रमों में भी नो जाती है, स्वयं भी की जाती है।
पादोपगम-मरण के भेदों में यह सत्रहपां तथा अन्तिम मरण है । इसे पादपोपगम भी गाहते हैं- शब्दार्थ व भाव दोनों का एक ही है-पादप अर्थात् वृक्ष-वृक्ष के समान स्थिर होना-इसका अभिप्राय मा दिया अंगेजह से टूट कर, उगकर यही भी किसी भी स्थान पर गिर जाता है, और गिरता है, फिर वहां से हिलता नहीं, निश्चत रहता है उसी प्रकार मापक अनगन प्रा स्वीकार गरीर की नगस्त मेष्टाओं का स्थान माहवा की भांति अगंगन --- अष्टा हल चामल एक ही स्थान परजिन पर जिला में भारत में स्थिर हुआ. अन्तिम राजमाती मुसारि नामा मासु पूर्ण पाता। इन अवस्था में निभाना
मी sinी गदि लोगो को बन्द नहीं हो जाता। मा किमान जगभरपा प्रातही है। और मरमा
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