Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जे नरा ।
हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा
न ते विज्जा तिगिंच्छंति अप्पाणं ते तिमिच्छगा ।'
जो मनुष्य हितभोगी, मितभोगी एवं अल्पभोगी हैं, उन्हें वैद्यों की चिकित्सा की कोई आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि वे तो अपने आप में ही चिकित्सक (वैद्य ) हैं । उनकी चिकित्सा तो सतत चल रही है ।
प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञ वाग्भट से किसी ने पूछा कि संसार में नीरोग (स्वस्य ) कौन रह सकता है ? तो बिना किसी विलम्ब के सीधा उत्तर दियाहितभुक् मितमु शाकभुक् चैव, वामशायी शतपदगामी
छ ।
हितकारी परिमित भोजन करने वाला, टहलने वाला, और बायें पसवाड़े सोने वाला - ये
जैन धर्म में तप
भारत के सुप्रसिद्ध नीतिशास्त्री विदुर जी
वालों के यह छह गुण बताते हुए लिखा है—
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शाकाहारी भोजन के बाद बीमार नहीं पड़ते ।
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१ ओषनियुक्ति ५७८
२
विदुरनीति ५१३४
ने परिमित भोजन करने
गुणाश्च
मितभुजं भजन्ते आरोग्यमायुश्च बलं सुखं च ।
अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति ।
जो आदमी परिमित अल्पभोजन करता है—उसका आरोग्य, आयुष्य वल और सुख बढ़ता है । उसकी सन्तान सुन्दर होती है, तथा लोग उस पर पेटू' 'भोजन भट्ट' आदि बुरे शब्दों से आक्षेप नहीं करते ।
शास्त्रों में साधु के लिए स्थान-स्थान पर इसी कारण अल्पभोजन का उपदेश किया गया है कि इससे स्वास्थ्य भी सुन्दर रहता है, आलस्य नहीं ध्यान आदि भी आनन्दपूर्वक हो सकता है। साधु का आदर्श चढ़ता, स्वाध्याय, ही है-- अप्पमासी मियासणे - अल्पभासी, मितभोजन करने वाला । - अप्पपिण्डास पाणासि - अल्प आहार और अल्प पानी पीने वाला - अप्पाहारे, योवाहारे, मियाहारे अल्पाहारी, स्तोक बहारी, मिताहारी ये ही उसके