Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ॐनोदरी तप वृत्ति का संक्षेप द आहार का संकोच होता है, इन पद्धतियों से मन इच्छित आहार नहीं प्राप्त हो सकता अत: इन्हें ऊनोदरी तप भी माना जा सकता है।
काल मनोदरी उत्तराव्ययन मूत्र में काल की अपेक्षा भी ऊनोदरी का वर्णन किया गया है-जैसे
दिवसस्त पोस्सीणं चटप्ह पि ३ जत्तिओ भवे फालो। एवं चरमाणो सलु फालोमाणं मुयव्यं । अहया तइयाए पोरिसीए उणाए घासमेसंतो।
चऊ भागूणाए वा एवं फालेण क नवे ॥' दिन के चार पहरों में इस प्रकार का अभिग्रह करना कि मैं अमुक प्रहार में भिक्षा के लिए जागा उस समय भिक्षान मिल गया तो भोजन पर गा अन्यथा अगवास करूंगा। इसमें प्रत्येक पौरुष का भी अलग अलग भाग करके अभिग्रह किया जा सकता है--जैसे तृतीय पौरखो में कुछ समय बाकी रहेगा तब भिक्षा के लिए जागा, अथवा उनके चतुर्थ भाग मा पंचम भाग (माय) में भिक्षा में लिए जागा-इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके आहारी यामी करना काल सम्बन्धी ऊनोदी है। ___ उबयाई मूत्र में इस प्रकार की प्रतिमा को कालचरस' नाम ने निक्षा पीके भेदों में गिना गया है। तात्पर्य दोनों का एक ही है.गाल की मर्यादा करके आहार वृत्ति में कमी लाना और तप को प्रोत्साहन देना ।
मुष्टियों में भिक्षा के चार दोपयातिपाल, मानातियांत, मार्मातित्रात और प्रमाणित प्रांत भी नोदी ना में लिये जा सकते है। मघोंकि उनमे मिला ये गान-नाराहार का भी नाम होता है । जैग
रातिशांत--जो गोदय के पूर्व साहार प्रहम करना और गोदय सोने होना पारि भिक्षा में भी सम्बन्दिर और