Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
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कालाति क्रांत दोप है । साधु का नियम है कि वह तीन प्रहर से अधिक काल तक अपने पास भोजन नहीं रख सकता। इससे साघु को असंग्रह वृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही भोजन का संयम भी किया जाता है । __ मार्गतिक्रांत-अर्ध योजन से अधिक दूर आहार ले जाना-मार्गातिक्रांत दोप है । भोज्य सामग्री के प्रति गृद्धि न रहे और वह सदा साथ लिये न घूमेइसलिए यह विधि भी आहार मंयम की द्योतक है।
प्रमाणातिकांत-इसका वर्णन बत्तीस कवल के सन्दर्भ में किया जा चुका है, इसका सीधा सम्बन्ध ऊनोदरी तप से जुड़ता ही है।।
इसी प्रकार भिक्षु की कुछ प्रतिमाएं-जिनमें एक दत्ति आहार की एक दत्ति पानी की प्रथम सात दिन तक ली जाती है, फिर दूसरे सप्ताह में दो दत्ति आहार दो दत्ति पानी-इस प्रकार बढ़ाते हुए सातवें सप्ताह में सात दत्ति आहार सात दत्ति पानी लेना-यह भिक्षु की सप्त सप्तमिका प्रतिमा कहलाती है। इसे अनशन तप में गिना जाता है, किन्तु इसका सीधा सम्बन्ध फनोदरी तप से भी जुड़ता है । इसमें आहार का सर्वथा त्याग नहीं, किन्तु आहार की न्यूनता--- कमी की जाती है। आहार पानी की कमी करना ऊनोदरी है। इसी प्रकार अप्ट अप्टमिका तप में प्रथम आठ दिन तक एक दत्ति आहार,एक दत्ति पानी,क्रमशः बढ़ाते हुए आठवें उठवाड़िये में आठ दत्ति आहार व आठ पानी की ली जाती है । नवम नवमिका और दशम दमिका में भी इसी प्रकार नो दिन और दश दिन का क्रम चलता है। इन तपों में साहार की न्यूनता ही प्रधान है, अतः इस अपेक्षा से इन नत्र वृत्तियों को जनोदरी तप में भी गिना जा सकता है।
भाव ऊनोदरी का वर्णन भी दो प्रकार से किया गया है-एक में दाता यो भावों की अपेक्षा से और दूसरे में अपने भायों की अपेक्षा से । पहली प्रकार की दृष्टि उत्तराध्ययन में मिलती है। वहां कहा है- . .
"भिक्षा महप के लिए जाने वाला साधु मन में यह बनिनह गरे फि. लाज मुझे अमुक स्त्री, क्या पुरुष, बले कार से युक्त हो अयया रहित, बालक हो मा वृद्ध, अमुक विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों से, अमर रंग के वस्त्रों से विभूषित