Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तप का वर्गीकरण
ज्ञप्ति (जानकारी) एवं प्राप्ति की जा सकती है-सत्येन लभ्यस्तपसा ोप आत्मा --सत्य एवं तपस्या के द्वारा ही आत्मा को प्राप्त किया जा सकता है ! योगदर्शनकार आचार्य पंतजलि ने भी तप का वर्णन किया है, आत्म शुद्धि के साथ-साथ शरीरशुद्धि के लिए भी उन्होंने तप की महत्ता स्वीकार की है-फायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धि क्षयात्तपसः२-तप: साधना के द्वारा अशुद्धि दोप का क्षय होने से शरीर एवं इन्द्रियों की शुद्धि होती है।
गीता में भी तप के सम्बन्ध में कई दृष्टियों से विचार किया गया है। तप के स्वरूप और उसके उद्देश्य को ध्यान में रखकर गीता में तप के तीनतीन भेद बताए गए हैं ! प्रथम स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है
देव द्विज-गुरु प्राज्ञ पूजनं शौचमाजवम्। . ब्रह्मचर्यमहिसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥ अनुद्वग करं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च तत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चव वाड्मयं तप उच्यते ॥१५॥ मनः प्रसाद सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भाव संशुद्धिरित्येतत् तपो मानस मुच्यते ॥१६॥ तप के तीन प्रकार हैं
शारीरिक तप याचिफ तप मानसिक तप
१-देवता, ब्राह्मण, गुरुजन एवं मानी जनों का आदर सत्कार करना, उनकी सेवा करना, शौच-शरीर एवं आचरण को पवित्र रसना, सरल व्यवहार करना, ग्रहानयं का पालन करना तमा किसी जीव को फप्ट नहीं देना-शारीरिक तप है।
१ मुण्यक उपनिषद् १११ २ योगवन, साधनापाय ४३
श्रीमद्भगवद् गीता, जयाय १७ ।