Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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नमन तप
___ "महाराज ! ये सब चीजें तभी अच्छी लगती हैं-जव पेट में अल हो !. पेट भूसा तो जगत कसा ! भूखे पेट संसार में कहीं भी रस व मानन्द नहीं आता।"
रामचन्द्र जी ने गंभोर होकर कहा - "यह बात है ? तो फिर मैंने आप लोगों से अन्न की कमाल क्षेम पूछो तो आप लोग हंसे रवों ? और क्यों मेरे प्रश्न को उपेक्षापूर्वक दुहराया ?"
लोगों की समझ में लाया-सचमुच मन ही सबसे मुख्य चीज है ! बन्न से ही संसार की गाड़ी चलती है।
__माहार के विविध प्रकार यहां अन्न ने अर्थ है सुपरव माहार ! इस सृष्टि में प्रत्येक शरीरधारी प्राणी को माहार की अपेक्षा रहती है। बिना आहार के कोई प्राणी जी नहीं सकता। जैन दर्शन का तो यहां तक कपन है कि कोई भी प्रापी अनाहार स्थिति में अधिक समय तक नहीं रह सकता। दो समय से अधिर अनाहारक स्थिति नहीं रहती।' अनन्तवली तीर्थकर भगवान भी अनाहारक नहीं रहते । वे भी शरीर चलाने के लिए बाहार करते हैं।
माहार की परिभाषा करते हुए जनाचार्यों ने कहा है-"दुधा वेदनीय फागो उदय ने भोजन रूप में जो वस्तु ली जाती है यह आहार (भावबाहार) है।" पह लाहार तीन प्रकार पा है
भावाहारो तियिहो बोए तोमे ५ पक्सेय ।। (1) लोज आहार-जन्म के प्रारम्भ में-माता के गर्भ में सवंयम लिया जाने वाला आहार !
(२) लोग माहार-स्वचा पा रोम द्वारा लिया जाने वाला माहार, से पचन हाधि।
(३) प्रक्षिपा माहार-मुखपा दमन बाधिशारा गरीर में प्रोन किया जा पाला बार।
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