Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
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स्वयं उसने भगवान महावीर के साथ रहकर कई प्रकार की तपस्याएं की थी, देखी भी थी, और लोगों पर प्रभाव डालने का एक अचूक साधन तप को वह मानता था । गोशालक के संप्रदाय में तप को क्या परम्परा घो इसका कोई विशेष वर्णन नहीं मिलता । स्थानांग सूत्र में एक स्थान पर आजीविकों का चार प्रकार का तप बताया है
आजोवियाणं चउव्विहे तवे पण्णत्त ' उग्गतवे, घोरतवे, रसनिज्जूहणया
जिभिदिय पडिलोणया ।
आजीविकों का तप चार प्रकार का है
(१) उग्रतप - जो आचरण में कठिन हो ।
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(२) घोरतप - जो दीखने में बड़ा कठोर हो ।
(३) रसनिय हण स्वादिष्ट वस्तु न लेना ।
(४) जिह्वन्द्रिय प्रति-संलीनता --- रसना इन्द्रिय के विषयों का संकोच
करना ।
गीता में तप का स्वरूप
कुछ लिखा गया है । आज के प्रचलित तप
अधिक है। यहां तपस्
वैदिक साहित्य में भी तप के सम्बन्ध में बहुत मूलतः वेदों में तप का जो उल्लेख है, वह शायद (तपस्या) के अर्थ में कम है, किंतु तेजस् के अर्थ में को एक दाहक - आग्नेय तत्व माना है जो अनिष्टों को, दुष्टों को और कष्टों को भस्मसात् करने की अपूर्व शक्ति है । उसके बाद उपनिषद् साहित्य में तप के विषय में काफी चितन किया गया है और उस पर जैन चितन की गहरी छाप भी है। वहां तप को साधना के रूप में ग्रहण किया है। कहा गया है-तपसा धीयते ब्रह्म - तप से परमात्म स्वरूप (ब्रह्म) की सोज की जा सकती है और तप से ही आत्म स्वरूप - जो शुद्ध ज्योतिमंच है उसकी
१ स्थानांग सू ४२ २ मुण्डक उपनिषद् ११११८